क्यों है ऐसा ? की , गाँव में औरत 'स्पेशल स्टेट्स ' भोग रही है . विशेष वाला स्पेशल स्टेटस नहीं , बल्कि 'अलग ' वाला स्पेशल स्टेटस ! यह लैंगिक असमानता का मसला नहीं है , औरत के औरत होने को लेकर दृष्टिकोण का मामला है . आज गाँव में लड़की पढ़ रही है , साइकिल चला कर अपनी दुरी भी तय कर रही है , मगर साथ में अपने लड़की होने का बोझ भी ढो रही है . समाज ने अपने नजरिए को विस्तृत नहीं किया है - उसे स्कुल भेजकर , साइकिल दिलवा कर . बल्कि उसे औजार की तरह काम में लिया है . जैसा की वह अब तक करता आया है . यह समाज के अभ्यास की ही सफलता है , जो औरत को खेती में काम लेता है , और उसे शारीरिक तौर पर कमजोर भी कहता है (हिप्पोक्रेसी ! ) और जब शिक्षा में खुलापन आया तो समाज ने औरत को अपने हिसाब से कस्टमाइज़ करने की कोशिश की है . कैसे ? पढ़ा लिखा कर अधिकतर लोग क्या करवाना चाहते है अपनी लड़की से ? नौकरी ? नहीं , सभी ऐसा नहीं चाहते है . बड़ा तबका इस लिए शिक्षा का दरवाजा लड़कियों के लिए खोलने को मजबूर हुआ , क्यूंकि विवाह के लिए प्रतियोगिता बढ़ी है . अपनी लड़की पढ़ेगी नहीं , तो विवाह मुश्किल होगा .
इस तथ्य को ठीक से जानने के लिए आप को देखना होगा की , विवाह के बाद उस पढाई के प्रति लड़की के अभिभावक का क्या रुझान रहता है . क्या वह वार पक्ष पर यह जिम्मेदारी डालता है की हमने एम.ए . पास करवा दी है अपनी लड़की को आप डॉक्टरेट करवाइएगा , या नौकरी के लिए उसे समय - संसाधन उपलब्ध करवाइएगा . नहीं ! सामान्य समूह कहता है - आप की हुई अब , आप चाहे तो पढ़ाइये आप चाहे तो नौकरी करवाइये ,आप चाहे तो घरेलू काम काज करवाइये . विवाह के लिए जो प्रतियोगिता थी असल में , वही पास करना लड़की का चरम लक्ष्य था - और वह सफल हुई . बस
स्त्री धन है , पूँजी है , वह इंसान नहीं है , जिस तरह धन का व्यक्तिगत अधिकारी तो हो सकता है , मगर व्यक्तिगत अधिकार नहीं होता है . उसी तरह स्त्री के व्यक्तिगत अधिकारी बदल जाते है , और अधिकार क्रमशः लोप होते चले जाते है , यही सच है आज का .