Tuesday 27 September 2016

बाजीराव मस्तानी :गुरुर और सुरूर का वाटर लू ।

बाजीराव मस्तानी :गुरुर और सुरूर का वाटर लू -----------------------------------
कुछ भी कहिए रणवीर के अलावा किसी और अभिनेता का माद्दा नहीं था बाजीराव को जीने का । दरबार में आते हुए बाजीराव की पिंडलियों की ऊर्जा शरीर का आकार कैसे लेती है , शुरूआती दृश्यों में देखिए । उदंड प्रेमी कैसे अट्टहास भरता है - पेशवा को कचहरी में गद्दी पर बैठते हुए देखिए ।
काशीबाई का चरित्र इस करीने से रोपा गया है की आप पत्नी के सोतिया डाह को सीधे पकड़ सकते है । फ़िल्म अपने आप में प्रेम का काव्य है , सोते हुए पढ़िए या फिर रोते हुए - आपकी इच्छा !
बाजीराव मस्तानी असल में समय को पार करती हुई वर्तमान की साजिश में लहूलुहान कथा है । ब्राह्मण सेनापति जिसने हिन्दू पद पादशाही का सिद्धान्त गढ़ा, अपना जीवन घोड़े की पीठ पर गेहूं की बलिया मसल कर खाते हुए गुजारा , उसे अगर किसी मुस्लिम लड़की से प्रेम हो जाए तो सेनापति के मनोविज्ञान की थाह आपकी बुद्धि के दायरे से बाहर हो जाती है । प्रेमिका इतनी दुःसाहसी की पूरे समय अपने चेहरे पर पत्नी और रखैल के द्वन्द को जीती है । अपने प्रेम के लिए वह युद्ध कला छोड़कर शुद्ध कला के जीवन में प्रवेश करती है और आपको भी प्रेम दीवानगी का पाठ पढ़ाने का प्रयास करती है । आप पढना चाहे न चाहे , अलग बात है  .
फ़िल्म में कैमरा जिस अक्ष से गुजरता है उस अक्ष से आप शायद कभी न गुजरे हो , दिल शायद उन अक्षांशों और देशान्तरों से बिलख कर निकला हो शायद कभी ! सीढ़ी उतरती हुई नायिका , नाचती हुई कोरस पात्र , पानी के फव्वारों के पीछे से गुजरता हुआ दृश्य आपको ट्रांस में ले जाने के लिए नाकाफी नहीं है । पानी समय को पार पाने का यंत्र है फ़िल्म में । जब भी कोई पात्र पानी में उतरता है , कहानी में समय अपनी लय खो देता हुआ सा लगता है । अंतिम दृश्य में बाजीराव पानी में तलवार चलाता है - आप पसीना पसीना है ।
दुआ कीजिए आपको कभी इश्क न हो ...।

बाजीराव मस्तानी :गुरुर और सुरूर का वाटर लू ।

बाजीराव मस्तानी :गुरुर और सुरूर का वाटर लू -----------------------------------
कुछ भी कहिए रणवीर के अलावा किसी और अभिनेता का माद्दा नहीं था बाजीराव को जीने का । दरबार में आते हुए बाजीराव की पिंडलियों की ऊर्जा शरीर का आकार कैसे लेती है , शुरूआती दृश्यों में देखिए । उदंड प्रेमी कैसे अट्टहास भरता है - पेशवा को कचहरी में गद्दी पर बैठते हुए देखिए ।
काशीबाई का चरित्र इस करीने से रोपा गया है की आप पत्नी के सोतिया डाह को सीधे पकड़ सकते है । फ़िल्म अपने आप में प्रेम का काव्य है , सोते हुए पढ़िए या फिर रोते हुए - आपकी इच्छा !
बाजीराव मस्तानी असल में समय को पार करती हुई वर्तमान की साजिश में लहूलुहान कथा है । ब्राह्मण सेनापति जिसने हिन्दू पद पादशाही का सिद्धान्त गढ़ा, अपना जीवन घोड़े की पीठ पर गेहूं की बलिया मसल कर खाते हुए गुजारा , उसे अगर किसी मुस्लिम लड़की से प्रेम हो जाए तो सेनापति के मनोविज्ञान की थाह आपकी बुद्धि के दायरे से बाहर हो जाती है । प्रेमिका इतनी दुःसाहसी की पूरे समय अपने चेहरे पर पत्नी और रखैल के द्वन्द को जीती है । अपने प्रेम के लिए वह युद्ध कला छोड़कर शुद्ध कला के जीवन में प्रवेश करती है और आपको भी प्रेम दीवानगी का पाठ पढ़ाने का प्रयास करती है । आप पढना चाहे न चाहे , अलग बात है  .
फ़िल्म में कैमरा जिस अक्ष से गुजरता है उस अक्ष से आप शायद कभी न गुजरे हो , दिल शायद उन अक्षांशों और देशान्तरों से बिलख कर निकला हो शायद कभी ! सीढ़ी उतरती हुई नायिका , नाचती हुई कोरस पात्र , पानी के फव्वारों के पीछे से गुजरता हुआ दृश्य आपको ट्रांस में ले जाने के लिए नाकाफी नहीं है । पानी समय को पार पाने का यंत्र है फ़िल्म में । जब भी कोई पात्र पानी में उतरता है , कहानी में समय अपनी लय खो देता हुआ सा लगता है । अंतिम दृश्य में बाजीराव पानी में तलवार चलाता है - आप पसीना पसीना है ।
दुआ कीजिए आपको कभी इश्क न हो ...।

पिंक फिल्म के बहाने औरत का स्पेक्ट्रम

क्या पिंक नाम की फिल्म पर बिना फिल्म देखें ही समीक्षात्मक टिप्पणी की जा सकती है . हाँ , क्यों नहीं. फिल्म, पिंक,और महिला को हम जानते ही है . और अगर पिंक भारतीय महिलाओं पर प्रकाश डालती है, तो बेशक टिप्पणी की जा सकती हैं .
सोचता हूँ, इस फिल्म का नाम 'पिंक' क्यों रखा गया है . क्या इसलिए कि 'ब्लू' भी फिल्म ही होती है , और वह भी महिलाओं को केंद्र में रख कर ही बनाई जाती है . इस लिहाज से ही 'ब्लेक' नामक फिल्म भी महिला पर बनाई गई थी. संयोग से अमिताभ बच्चन साहब ब्लेक में भी मुख्य भूमिका में रहे थे .
'पिंक' तो नहीं देखी , मगर 'ब्लू' देखी है और अमिताभ को भी देखा है कई फिल्मो में . सवाल यह है की महिलाओ को केंद्र में रख कर बनाई फिल्में रंगों के नाम पर क्यों बनाई जा रही है. क्या इंसान की नियति रंग देखना महिलाओ के सहयोग से ही संभव है. हमारी माएँ , बहनें, पत्नियाँ, प्रेमिकाएँ रंगों का इन्द्रधनुष है क्या ? और अगर है, तो फिर अलग अलग रंगों से क्यों संकेत करते रहते है हम.
विज्ञान में 'स्पेक्ट्रम' नाम का एक फिनोमेना पढ़ा जाता है. प्रकाश को प्रिज्म से गुजारने पर प्रकाश सात रंगों में बंट जाता है. बैंगनी रंग सबसे नीचे रहता है और लाल रंग सबसे ऊपर होता है इस इन्द्रधनुषी स्पेक्ट्रम में. गहरा नीला सबसे नीचे रहता है, इसीलिए हम 'ब्लू' फिल्म को सबसे कमजोर दर्जा देते है क्या ? और लाल रंग सबसे ऊपर होता है, क्या क्रांति और महिला की स्वतंत्रता इसीलिए हमारे मष्तिष्क के स्पेक्ट्रम से बाहर है. हम डरते है शायद औरत की स्वतंत्रता से. सो ब्लू फिल्म बना कर उसकी देह पर अधिकार करके उसे लाल रंग तक यात्रा करने ही नहीं देना चाहते.
विज्ञान में एक और फिनोमेना पढ़ा जाता है. ;ब्लू शिफ्टिंग' और 'रेड शिफ्टिंग' . ब्रह्मांड को पढ़ते समय ये दोनों फिनोमेना खूब पढ़े जाते है; अगर किसी तारे से आ रही उर्जा नीले स्पेक्ट्रम की और शिफ्ट हो रही है तो वह तारा हमसे नजदीक है . और किसी तारे से आ रही प्रकाश उर्जा लाल रंग के स्पेक्ट्रम की ओर शिफ्ट हो रही है तो वह तारा हमसे बड़ी तेजी से दूर भाग रहा है .
औरत वही तारा है जो ब्रह्मांड में हमसे दूर जा रहा है . रेड शिफ्टिंग से बचने के लिए हम 'ब्लू' फिल्म का सहारा लेकर उसे कैद करना चाह रहे है. मगर कब तक सम्भव है ! रेड शिफ्टिंग से इंसानियत कब तक बचती रहेगी, मुहँ छिपाती रहेगी, भागती रहेगी .
स्पेक्ट्रम में 'पिंक' रंग नही है . मगर फिल्म का नाम है पिंक. हो सकता है औरत के लिए अपना प्रकाश और उर्जा तैयार करने की दिशा में निर्देशक नैतिक बल प्राप्त करने में खुद को कमजोर देखता हो सो वह लाल की जगह पिंक रंग के लिए ही स्थान खोज पाया हो.
अमिताभ ने 'ब्लेक' से 'पिंक' का सफ़र औरत के साथ किया है. रेखा की स्मृति, यादें, उसकी उदास तन्हाई, अमिताभ के प्रति समर्पित भूतकाल. अमिताभ ब्लेक से पिंक तक के सफ़र को उन स्मृतियों के कारण तो नहीं भर रहे है कही ? भरे , कोई दिक्कत नहीं है .
आम आदमी को इस स्मृति को भरने का साधन नहीं होना है .जीवन में रेखा रही हो या नहीं हो . कम से कम हम तो ब्लेक से पिंक तक के सफ़र को रोक सकते है . हमे प्रिज्म से गुजरती स्त्री और बिखर कर रंगों में टूटती स्त्री को स्पेक्ट्रम होने से रोकना चाहिए . गाँधी कहते थे , सत्याग्रह स्त्री के चरित्र और व्यवहार के अधिक नजदीक है. बताइए, स्त्री के जिस प्रकाश ने अंग्रेजो के सूरज को डुबो दिया. वह प्रकाश हमारे जीवन में कितने सूरज उगा सकता है . ब्लू ,ब्लेक,पिंक के रूप में स्त्री को क्यों देखते है . एक बार मन से उसके प्रकाश को प्रिज्म से गुजरने से रोकिए. यूँ ही मूल रूप से अहसास कीजिए .
रंगीन हो जाएगी जिन्दगी . इसलिए ही तो सारी दौड़ भाग रहे है हम.














Sunday 25 September 2016

एक लड़की

इतिहास की कक्षा में उस रोज एक ही लड़की आई थी। टॉपिक खत्म हुआ और अंतिम पाँच मिनट बजे थे सो मैंने पूछ लिया, पिताजी क्या करते है? पढ़ कर क्या बनना चाहती हो? वो भरी हुई थी। बोली पिताजी कुछ नही करते, सिलाई करके पढ़ती हूँ, पता नही आगे क्या करना है। मैंने कहा, जीवन बहुत मुश्किल होगा। मगर तुम्हे दो काम करने का मौका मिला है, पढ़ो और लड़ो।
वो थोड़ी बन्धी। हिम्मत से हुई।
घण्टा लगा, मैं उठकर जाने लगा तो बोली, सर रुकिए जरा। मुझसे मित्रता कर लीजिए न।
मैंने कहा, हम मित्र ही है। जो भी मदद होगी कहना।
उस रात मुझे नींद न आई। सोचा, कैसा है जीवन। उस लड़की को कितनी जरूरत है, सद्भावना की। कितने ही लोग होंगे ऐसे। उनके दुःख और संघर्ष की गिनती कौन करता होगा। ईश्वर! क्यों नही देखता वो हर कौने में।
एक रोज उस लड़की का फोन आया। बोली, आपने साफ़ साफ़ नही बताया की आप मित्रता करेंगे या नही! मैंने कहा, हाँ! हम मित्र हैं। तुम्हे मेरी मित्रता को हाँसिल करने के लिए कोई प्रयास नही करना है। जैसा तुम्हारे साथ हूँ, वैसा हर विद्यार्थी के साथ हूँ। चाहता हूँ, तुम्हारी हिम्मत बची रहे। तुम अपने साथ न्याय करो। आगे बढ़ो। रुको मत।
वो बोली, ठीक है।
इसी तरह की घटनाएं मुझे रोज कुचल कर रख देती है। हमारी लड़कियाँ सच में बहुत अकेली है, उन्हें सहारा नही हिम्मत चाहिए। मैंने दिलासा दिया तो सही उसे। मगर दुःख का जो अकेला रेगिस्तान वो मुझे कर गई। बहुत दिनों तक नही भूलूँगा।
ईश्वर! हिम्मत दे तेरे बच्चों को। ताकि वो पढ़ भी सके और लड़ भी सके।

Friday 23 September 2016

पुलिस वाले का बेटा

आदरणीय पूज्य पिताजी,
आदरणीय और पूज्य कहने से व्याकरण के नियम अस्थिर होते होंगे। मगर यूँ कहने से मैं थोड़ी देर भी स्थिर रहा, तो इस व्याकरण के दोष का अहसान होगा।
पिताजी, आज शाम को कपड़े बदलते वक्त मेरा ध्यान अपने पेट की तरफ गया। देखा कि बेल्ट बांधने से पेट पर बड़ा निशान पड़ गया है, चमड़ी उधड़ गयी है। बरसों पहले आप जब घर आ कर पुलिस की वर्दी उतारते थे रात को, तब अक्सर ऐसे ही निशान को दिखाते थे। कितना बदकिस्मत है आपका बेटा, निशान देख कर भी आपके दिन भर की निशानदेही नही कर पाता था। पापाजी, मैं दो महीने नौकरी पर क्या गया। सुबह से शाम तक कमरपट्टी क्या बांधी खुद को तीसमारखां समझने लगा। आपने पुलिस की नौकरी में छत्तीस साल कैसे बेल्ट बाँधा होगा।
खैर मैं तो शिक्षक हूँ, खड़े खड़े पढ़ाता हूँ। एक रोज बेल्ट के खिंचाव से बैठे बैठे पेट खराब कर लिया। सिर्फ एक दिन बेल्ट सहित लगातार बैठने से आंतड़िया चढ़ा ली मैंने। बहुत बार देखा की आप वर्दी पहन लेते, और अचानक वर्दी उतार कर बाथरूम चले जाते। पुलिस की गाड़ी में रात रात भर ड्राइविंग करने से आपकी पेशिया और आँते किस हद तक खिंच जाती होगी, आज पता लग रहा है मुझे।
रोज बस से जाता हूँ, रोज जाने वाले यात्रियों से अनजानी सी जान पहचान हो जाती है। एक ऐसी ही किसी स्त्री से रोज बस में मुलाकात हो जाती थी। मुझे कुछ रोज बाद लगा, मैं उसके आकर्षण में हूँ। और जब काम का बोझ ज्यादा होता तो ज्यादा आकर्षक महसूस करता।
पापाजी, आप 36 साल तक काम के दबाव में रहे, बारह घण्टे से अधिक काम किया। बदनाम महकमे में रहे। मगर मेरी मम्मी इस तरफ से निश्चिन्त रही की आप भारी दबाव में भी किसी की तरफ आकर्षित होंगे। कैसे आपने खुद को समेटा, बिखरने से बचा कर रखा। कैसे ?
मैं तो साठ दिन में साथ-दिन गिनने लगा था।
बहुत बार आपको कोसा हैं, आपकी नौकरी और हमारी परवरिश की कमियों को उलाहना दिया है। मगर आज पता लगा की आप की जगह मैं होता तो बिखर जाता। मुझे उन तमाम शिकायतों के लिए माफ़ कर दीजिए प्लीज।
पापाजी, सही बात यह हैं की आपकी मेहनत की असफलता की मीनार हूँ मैं। पर मैं सुधरूँगा, एक मौका दीजिए। मेरा तमाम जीवन संघर्ष बिना 'उफ्फ' के बीत पाया तो समझूँगा आपके पेट पर पड़े बेल्ट के निशान पर मरहम पहुँची हैं।
आपका बेटा
विक्की/ रतनजीत

ग्रामीण देह की बू

एक ग्रामीण स्त्री की महक बटी हुई है । उसके कंधो से वजन उठाते हुए बाजुओं की गन्ध है; कपड़ो में सिली हुई। उसके सर से सरसों के तेल की बू आती है; मिट्टी और सिंदूर से भरी हुई। उसके पैरों से खेत की मिट्टी, पगडण्डी की भभूत और आवारा खरपतवार से उड़ कर आए वृताकार काँटों की बास आती है।
उसके ब्लाउज पर दूध के बड़े बड़े चकते मन्डे हुए है, जिससे बास आती है सुबह से रखे दूध सी।
दीवाली, राखी और विवाह के अवसरों पर ही वह रंग रोगन कर पाती है खुद का। देर तक नहा कर। बारहमासी बू को धो कर इत्र से सींचती है, कुछ देर। और खो जाती है समारोह में।

Wednesday 21 September 2016

भारत-पाक युद्ध उन्माद

उरी हमलें के बाद हर तीसरा व्यक्ति या तो हताश है, या हमले और आक्रमण की पैरवी कर रहा हैं। युद्ध की वकालत हो रही है। जानकार कह रहे है की 'जन भावनाओं' को देख कर युद्ध नही लड़े जाते। बात तो ठीक है, मगर ये जनभावना युद्ध की पैरवी ही क्यों कर रही है? अन्य विकल्प क्यों नही सुझा रही! जनता मूल रूप से हिंसक ही होती है, या फिर भारत-पाक नामक फिनोमेना युद्ध के आग्रह का पर्यायवाची है।
बहुत से ऐतिहासिक कारण हैं, जो जनता को युद्ध की वकालत को बाध्य करते है।
मगर फिर भी प्रश्न उठता है, कि हमारा इतिहास बोध इतना जुझारू है वाकई! इतना कि लगभग हर तीसरा व्यक्ति युद्ध की अनिवार्यता को ठान कर बैठ ही जाए ! इतना हिंसक समाज तो नही है हमारा।
कही ऐसा तो नही है कि सरकारों की विफलता को जनता भोग रही है! विभाजन, तीन प्रत्यक्ष युद्ध और निरन्तर चल रहे छद्म युद्ध जनता की सफलता असफलता से इतर पाक नामक मुद्दे को लेकर सरकार की शालीन असफलता का चिह्न बन गया हैं। सरकारों की सफलता उनकी निजी सफलता बन जाती है, मगर उनकी असफलता जनता के लिए अदृश्य बोझ है। और जनता इस बोझ को युद्ध के जरिए उतारना चाहती हैं।
अठ्ठारह जवानों के शहीद होने के बाद जिस युद्ध की कल्पना की जा रही हैं, उसमे और सैनिक शहीद नहीं होंगे ? नागरिक हताहत नही होंगे ? यह विवेक लोग खूब समझते हैं। मगर आप अपने कृत्य पर आप शर्मिंदा नही है, तो बिना गलती किए भी मुझे शर्मिंदा होना पड़ेगा।
सरकारों ने इस फिनोमेन को शर्मिंदगी की हद तक असफल कर दिया है सात दशकों में, चूँकि वो शर्मिंदा नही होती हैं। सो नागरिक शर्मिंदा होकर युद्ध का आग्रह कर रहा हैं।
वह भी जानता हैं की युद्ध किसी समस्या का समाधान नही हैं। मगर यह समस्या है ही नही अब नागरिक के लिए। यह तो शर्मिंदगी से बचने के लिए किया जा रहा आत्मदाह जैसा उन्माद है।

ये जो भारत है

इस देश को छोड़ना कितना मुश्किल है, बात छोड़कर बाहर जाने की नही हैं। इस देश को अखिल रूप से स्मृतियों से बाहर करने की हैं। बहुत कोफ़्त होती हैं, लोगो की तटस्थता और अलसाया हुआ नजरिया देख कर। मगर फिर भी, प्रेम उमड़ आता है इन्ही लोगो पर। आप कितनी भी बौद्धिक प्रगति कर लें, कितनी भी चेतना का विकास कर ले। मगर साधारण से व्यक्ति के सम्पर्क में आते है, तो उसकी श्रम मिश्रित भावुक ग्लानियों में खुद को विद्यार्थी पाते है। बहुत मुश्किल लोग नही रहते भारत में, सरल भी है और टकटकी से चाँद को देखकर चांदनी की आस में रात काटने वाले भी है ये लोग।
बहुत सरल सा जीवन संघर्ष हैं यहाँ, फौरन हथियार डालकर प्रेम करने लग जाते है ये लोग। प्रेम भी ऐसा की एक बार जिसे चाह लिया, बस चाह लिया। बदले में जान देना छोटी चीज है, ये तो आपको अपना डर, अपनी शंका, अपना रुतबा सब दे देते हैं। प्रेम के बदले में।
छोटी सी जिंदगी है, उसी में अद्वैत से लेकर बुद्ध का क्षणिकवाद समझा देते है ये। जी कर स्वयं।

Sunday 18 September 2016

प्रेमिका

कई स्त्रियाँ उसके प्रेम में थी। उसने एक से कहा, मुझे पाना है तो चित्रकारी करो। एक से कहा, बच्चों को पढ़ाओ। एक से , माँ होने को कहा। और एक से सिलाई करने को कहा।
कालांतर में , एक चित्रकार हो गई और कवि भी। एक विश्व विद्यालय में दर्शनशास्त्र की अध्यापिका। एक का बेटा वीणा वादक बन गया और एक कस्बे की सबसे बड़ी सिलाई सेविका हो गई।
बातों ही बातों में वे सब हँस पड़ी एक रोज, जब आपस में मिली। उनकी हंसी में उस बर्बाद आदमी के प्रति सम्वेदना और खुद के मुकाम का मिला जुला रस था।
एक पेड के नीचे अपने फटे हुए जूते से पानी निकालते वक्त जब वो सामूहिक हंसी पेड़ की डाली पर आ बैठी।
वह मुस्कुराते हुए बोला, उन्होंने जो पाया वह जो भी है। बस मैं नही हूँ।

चौधरी मेडम

चौधरी मैडम थी, उनका बालक मानसिक विमंदित था और हमारी ही स्कूल में पढता था। पता नही मैडम के पति क्या करते थे, कहाँ रहते थे। वो स्त्री स्कूल में अपने बेटे की शैतान लड़कों से रक्षा भी करती और पढ़ाने में भी ध्यान देती। स्कूल के बच्चे उनके पुत्र को बन्दर कह कर चिढ़ाते थे मगर मैडम बदले में किसी को मारती वारती नही थी, डांट देती थी।
वैसे मैडम बहुत अच्छा तो नही पढ़ाती थी, मगर बच्चे उनके घर परीक्षा से एक दिन पहले मुँह लटका कर पहुँच जाते तो इम्पोर्टेन्ट प्रश्नो के टिक लगा देती थी।
जो बच्चे सर्दियो में रुखा मुहँ लेकर स्कूल आ जाते थे, चौधरी मैडम उन बच्चों की माँ को उलाहना देते हुए पर्स में से बोरोप्लस निकाल कर क्लास में ही उनके मुहँ पर बोरोप्लस मसल देती थी।
उनकी बेटी भी हमारे ही स्कूल में पढ़ती थी, आश्चर्य ! उनकी बेटी को न कोई लड़का परेशान करता न गॉसिप बनती उसकी।
शायद स्कूल में चौधरी मैडम हमारी माँ थी।
ओ माँ , जहाँ भी हो प्लीज़ खुश रहना। आज आप बहुत याद आई।

अजमेर

हर शहर का एक फ्लेवर होता है, एक स्वभाव। स्वभाव जिसे वहाँ का भूगोल, इतिहास और सामाजिक तानाबाना निर्धारित करता है।
अजमेर; इस शहर में आप बांस की भांति रोपे हुए पाते है खुद को। यहाँ का भूगोल , इतिहास और लोक मनोविज्ञान इस तरह गुंथा हुआ है की आप ठीक ठीक किसी आदमी की तरह इसके व्यवहार और सामान्य प्रचालन को भांप सकते है।
बहुत पुराना है अजमेर, बारहवी शती के बाद से यह चर्चाओं में तो रहा। मगर स्थाई रूप से कभी किसी सत्ता की राजधानी नहीं रहा। पहले मुगल, फिर मराठा, और फिर अंग्रेज। सभी ने इसे अपनी सरकार के मुख्यालय के रूप में काम में लिया। यहाँ का स्थाई राजा न हुआ कोई। सो यहाँ के लोगों में नायकत्व के प्रति विशेष राग और लड़खड़ाती हुई उमस दिखेगी। चमत्कारों को यहाँ हाथो हाथ लिया जाता है, किसी चौराहे पर टोटके के अभिमन्त्रित नींबू, टोटम यहाँ आम है। सचिन पायलेट यहाँ से बिना पूर्व प्रयास के चुनाव जीत जाते है।
चूँकि यहाँ राज और सत्ता का स्थाई आवास नही बन सका। ठहराव यहाँ की विशेष भूमिका का मन्त्र है। कोई हलचल नही, बरसो एक ही दूकान से सामान लेने वाले लोग, एक ही रास्ते से जाने वाले लोग थोक में मिलेंगे। मानसिक चरित्र ऐसा की सोफिया से आगे सोचने का विचार उठता ही नही, सेंट जिस स्कूल के आगे लग गया वो बेहतर।
चूँकि प्रशासको ने एक तरफ़ा निर्माण करवाए यहाँ, सो शहर के प्रति उसके इतिहास के प्रति रूचि नगण्य मिलेगी। भारतीय इतिहास को उलट पलट कर देने वाले सैय्यद बन्धुओ का मकबरा है यहाँ ; अब्दुल्ला खान का। पर जानता कौन है इधर। मेंयो कॉलेज यहाँ के लोगो के लिए स्वप्न है, स्वप्न के भीतर स्वप्न है। सो लोककथाए बन जाती है आपे आप ; बॉबी देवल अपनी बहन को संभालने मेयो आया और सिगरेट खरीदने अमुक दूकान पर गया। जब बरसात फ़िल्म आई तो दुकानदार ने कहा ये लड़का मेरे यहाँ सिगरेट फूंकने आता था।
नागौर, टोंक, भीलवाड़ा जिलो से सटा है अजमेर( पाली से भी) मगर संस्कृतियों का संक्रमण नही हो पाया। सो शहर दो धड़ो में विभक्त हो चला है, वैशाली नगर की तरफ सभ्रांत वर्ग का निवास माना जाता है। बाकी गुजर धरती जैसे मोहल्ले भी है जो शहर के भीतर गाँव का लुक डेते है।
बाहरी पर्यवेक्षक आसानी से कह सकता है की यह थका हुआ उबासी लेता शहर है। रिटायरमेंट काटने के लिए मुफीद। मॉल , सिनेमाहाल आपको अपडेट होने से नाराज दिखेंगे। लड़कियाँ जिंस में खुद को सहज नही पाती है अधिकतर, उनके लिए लम्बा काजल लगाना चरम अभिव्यक्ति की तरह हैं। कहने को शिक्षा नगरी है, लडकिया आज भी प्ले स्कूल में 800 रुपये तनख्वाह में पढ़ाती मिल जाएगी।
बंधी हुई ऊर्जा का शहर, नीरवता का निशान।
होते है , ऐसे शहर भी।
'एक शहर'

इत इत इतवार

लोग तुमसे प्रेम करते रहे ताजिंदगी, मगर तुम किसी से प्रेम नहीं कर सकें। यही तुम्हारें जीवन की बड़ी विडम्बनाओं में से एक है। क्यों तुम कभी खुल न सके, क्यों तुम हमेशा प्रेमी होने का बोझ ढोते रहे।
कई किताबे हुई जो शब्द झड़का कर खाली हो जाना चाहती थी, मगर तुम पेन्सिल बने रहे, सिलते रहे अपने शब्दों के अर्थ। उछाल कर शब्दों को गिनते रहे धरती पर गिरने वाली मात्राओं को।ओ मनुज! हाथ पकड़ना सीखो उन बच्चों का जो तुम्हारें लिए अपनी कञ्चियां मुट्ठी में दबाए देर शाम तक तुम्हारा इंतजार करते हैं।
आँखे पहचानों उन चौराहे के दुकानदारों की जो पसीना पोंछते हुए तुम्हे देख कर मुस्कुराते हैं। बढ़ी हुई कलमों वाले आवारा दोस्तों की पदचाप पहचानों वो तुम्हारें मोहल्ले तक आ कर मुड़ जाते है वापस।
अपने प्रेमद्रोही होने का बोझ इतवार को उतार दो।
'इत इत इतवार'

टिक टिक तकता टिकट यात्री

सोना है तुम्हारी करवटों के बगल में, तकिए के उस कौने पर जहाँ तुम्हारे दिन भर की खुशबु धुएं की तरह पहुँचती है। तुम्हारें पैरों से उगी सिलवटों में मन का पानी उड़ेल कर बह जाना चाहता हूँ, बिस्तर से और छु लेना चाहता हूँ धरती की नम कब्रगाह को रात के तीसरे पहर।
बिस्तर से नीचे उतर कर पग थलियो से कमरे की ठंडक के अहसास के सहारे धरती के उस अक्ष की तरफ बढ़ जाना है। जहाँ.... जहाँ देह के ध्वस्त होते प्रतिमान ध्यान की गुफाओं के रास्ते बताते है।
तुम दीपक हो, प्रार्थना का। अपना दायाँ अंगूठा करम पर टिका कर ठीक आधी रात में मुक्त कर दो मुझे। दे दो टिकट पूर्व या पश्चिम की यात्रा का।
'टिक टिक तकता टिकट यात्री'

कालचक्र

कल्पना, रोटी, धोती और स्लेट। गाँव के पीपल पर टँकी हुई है चमकादड की तरह। औरते पीपल के किनारे बसे तालाब से पानी भर कर ले जा रही है, पीपल के नीचे से गुजरते हुए पानी से छींट दे रही है कल्पना को। रोटी भीग कर धोती पर दाग की तरह गिर पड़ती है। यह दृश्य देख कर स्लेट मुस्कुरा देती है पीपल की तरफ।
पीपल याद कर लेता है अपने पुराने दिन, जब बुद्ध बैठे थे छाया में।
स्त्रियों का दल लौट जाता है इस दृश्य को फिर से देखने के लिए।
'काल चक्र'

अग्नि मन्त्र

ओ अंतरिक्ष के देवता ! हमारी गुमनाम चिट्ठियाँ पहुँचाओ ईश्वर को। वे चिट्ठियाँ , जो मन्नतों के धागों से बन्धी है मन्दिरों के वृक्षों पर, इबादतगाहों की पिछली दीवार की जालियों पर।
कहों तो जरा ईश्वर से, की मनुष्य की आपत्तियाँ आई हैं । हमारी आपत्ति है कि, मृत्यु को नया जीवन मानने के बाद भी प्रति प्रश्न खत्म क्यों नही होते हैं। क्यों मृत्यु और जीवन के बीच का संक्रमणकाल इतना दुरूह और कष्टदायी हैं। क्यों जीवन में सम्बन्धो का कलश संवादों के बावजूद इतना संवादहीन हैं। क्यों मृत्युमय नव जीवन इतना बलिदानपूर्ण हैं।
कहों हमारें ईश्वर से, अन्नदाता का आसन त्याग कर खेत में खड़े किसान के पसीने को अंजलि में भरें और कहे की अंजलि में ईश्वर के बच्चे का भ्रूण है, अगला ईश्वर यही से पैदा होगा।
कहो अपने ईश्वर से कि, गाभिन स्त्री के पैरों पर आईना जँचा दे। ताकि दुनियाँ अपना अक्स देख सके , चेहरा पोंछ सकें।
ओ अंतरिक्ष के देवता ! हमारें धागों को जोड़कर रस्सी बना दो। एक दिन सारी मानवता आरोहण की आकांशी हो जायेगी। हम तालाब में गिरने की बजाए रस्सी पकड़ना ठीक समझेंगे।
'अग्नि मन्त्र'

डर

खिलजी साम्राज्य पढ़ाते हुए, यूँ सन्दर्भों में 'डर' का जिक्र आ गया। मैंने एक एक से पूछा की उनका सबसे बड़ा डर क्या हैं।
आश्चर्य अधिकतर लड़कियों ने कहा 'अँधेरा' व 'इन्सल्ट'
एक बात बताइए लड़की जो अपने ही घर में रह रही हैं, उसे कौन संकेत कर रहा है की अँधेरे और इन्सल्ट से डरना चाहिए। हम और हमारा परिवेश।
ज्यादा गहरा नहीं जाते हैं, आप जानते है की अँधेरे और इन्सल्ट से डरने के मायने क्या होते है। बात यह है कि,
आप इस पोस्ट को पढ़ रहे है और अविवाहित लड़की है, तो याद रख लीजिए अँधेरे और इन्सल्ट से डरना आपके खून में नही हैं। ऐसा आपको सिखाया गया है आपकी परवरिश के दौरान। और यह दोनों डर आपको जीवन भर अलग अलग रूपों में डराएंगे। चादर को उठाना शुरू कीजिए, जो परिवेश आपको अँधेरे और इन्सल्ट से डरना सिखा रहा है, उसे वापस लौटा दीजिए ये दोनों डर।
अगर आप शादीशुदा है, बच्चे है आपके। ध्यान दीजिए अपनी बेटी को अँधेरे और इन्सल्ट से मत डराइये, मुझसे पूछिए जब वे कह रही थी की उन्हें इन चीजो से डर लगता है। तो उनके चेहरे पर शैतान की छाया थी। अपनी बेटियों पर से ये छाया उठा लीजिए प्लीज, वरना अँधेरा और इन्सल्ट हर जगह उन्हें मारेगा। तोड़ेगा।

प्रेम की मृत्यु प्रार्थना

देखो ! तुमसे प्रेम तो हैं, मगर तुम्हारी बैचेन गति देख कर ठहर जाता हूँ। ऐसी गति मुझे पा कर छोड़ने का अग्रिम संकेत हैं। लगता है तुम मुझे नही किसी और वस्तु को प्राप्त करना चाहते हो, मैं रास्ता या किनारा भर हूँ। इसीलिए तुम्हारी लाख बैचेन साँसों के बावजूद मैं तुम्हारे प्रेम की शांतिपूर्ण मृत्यु की सघन प्रार्थना करता हूँ हर शाम।
'मृत प्रेम की कथा'