Monday 21 November 2016

लौह तन्त्र- लहू मन्त्र

हमारी हड्डियों के जोड़ के दर्द की दवा सरकार के पास बन्द है। सो बात बात पर दर्द का इशारा सरकारी गौदाम की तरफ हो जाता है। हड्डियों को गलाया हमने खुद, और दवा की आशा सरकार से! ये कहना है सरकारी ताले का। घुटनों से ग्रीस निकाल कर ताले में लगाते हुए हमने भी गीत गा दिया; ये ग्रीस ही तुम्हारी जिंदगी है और मौत की दवा भी। तुम्हे खुलना होगा तालों, भीतर अनाज के सड़ने से पहले। हमारा भूख से गिर पड़ने से पहले।

Saturday 19 November 2016

वस्त्र तरंग: सम्वाद

कई बार मैं चाहता हूँ; अनजान गाँव की पहाड़ी पर जा कर खड़ा हो जाऊँ। मेरे वस्त्र इतने ढीले हो कि हवा का बारीक रेशा भी उन्हें हिला दे धीमे से। हवा की छोटी सी लहर उन्हें सारंगी की तरह छेड़ दे और उससे उठी तरंग को मैं सुनता रहूँ देर शाम तक, वहीं पहाड़ी पर खड़े हुए।
कई बार मैं चाहता हूँ ऐसा हो। और हर रोज, तकरीबन ऐसा हो जाना चाहता हैं। चूँकि मैं चाहता हूँ, सो हो नही पाता।
मुझे ऐसा नही चाहना चाहिए, जो हो जाता है उसे देखते रहना है।
पहाड़ी, वस्त्र और हवा मेरा वर्तमान है।

तुम्हे मनुष्य होना है

'तुम्हें मनुष्य ही रहना था। जन्म के तुरन्त बाद तुम्हारा रोना, असल में मनुष्य होने का सन्ताप था। और फिर जीवन भर तुमने देवता बनने का प्रयत्न किया। क्या हाँसिल हुआ, तुम बड़े देवताओं के हाथों ठगे गए और छोटे मनुष्यों के पैरों तले कुचले गए। अकेले में तुम्हारे द्वारा बहाए गए सारे आँसू, तुम्हे यकीन दिलाना चाह रहे थे कि अभी भी वक्त है मनुष्य होने की तरफ लौट जाने का। मगर तुम्हे देवता बनना था।
मनुष्य से देवत्व की यह यात्रा तुम्हे खारिज करती गई सीढ़ी दर सीढ़ी। स्वयम्भूत देवता बन जाओगे तो खुद को अकेला पाओगें, जैसा की तुम अक्सर पाते हो। याद रखों मनुष्य कभी अकेला नही होता, उसके सुख रास्ते बांटते है और दुःख पेड़ पीते हैं। वह कभी अकेला नही होता।
देवता होना अपराध है। क्योंकि हर गलती पर देवता खुद को माफ़ नही करते, रात में अपनी पीठ को चाबुक से उधेड़ना होता है। मनुष्य तो क्षमा ले और दे कर नींद कमा लाता है हर रात।
एक बात यह भी, तुम मनुष्य होने का आनंद नही समझते हो। एक काम करो, अपनी गलती पर हँसो, अपनी अच्छाई पर व्यंग्य कसो। फिर देखो तुम्हारा होना कितना मुकम्मल हो जाता है। बुद्ध ने कहा मैं मनुष्य हूँ, समझ जाना था तुम्हे संकेत।
देवता होना मरने से इंकार करना है। सोच कर देखो, तुम कभी भी मर सकते हो क्योंकि मनुष्य हो। फिर न सन्ताप रहेगा, न दुःख , न विषाद। तुम मनुष्य होंगे तो वर्तमान को जी लेने का अर्थ समझोगे फिर।
उतर जाओ सिंहासन से, उतार दो मुकुट। फिरो लोगो में, जंगल में, पहाड़ पर। आंसू पोंछो अपने जैसे लोगो के उनका कान बनकर।
देवत्व ने तुम्हे धोखा दिया है। मनुष्य होना ईमानदारी है। '
'सुनो'

पिता को पुत्री ने लिखा

पिता को पुत्री ने लिखा।
प्रिय पिताजी,
आप कितने प्रिय है, बता नही सकती। न ये बता पाती हूँ की आप क्या है मेरे लिए।
आप जब नौकरी पर चले जाते थे मैं स्कूल से आते वक्त, समारोहों में नाचते समय और पढाई से थक कर किताब बन्द करते हुए आपके संघर्ष को जीती थी। हमेशा सोचती थी, मेरे पिता का दुःख मेरे ऊपर से गुजरकर सुख में तब्दील हो जाना है एक दिन। समय और भविष्य से मेरी लड़ाई में आप मेरी ताकत भी थे और थकान का सहारा भी।
पिताजी, अब भी सोचती हूँ की कभी लड़कियो से शौक नही किए तो क्या! पिता जी जिंदगी जी कर खुद को उन्नत तो किया हैं।
पर मैं प्रेम नही कर पाई, आपने किया था कभी। कभी पहले। हम दोनों एक से निकले, समय की भागदौड़ में न प्रेम आपको खोज पाया न मुझे पकड़ पाया। मेरी कई सहेलियाँ मुझे चिढ़ाती थी बाईजी कह कर। पर मेरे पास अदृश्य जिम्मेदारी का बोझ और पिता की इज्जत का डर था। नही किया सो नही किया।
कल भी किसी से सस्नेह बात कर ली, तो अपराध बोध से भर गई। कही पिता बुरा न मान ले। रात आँखों में कटी और आँखे आँसुओ से कटती रही। पिताजी, बात कीजिए न मुझसे।कि मेरी उम्र के अपराध मेरे हिस्से में न लिखेगा ईश्वर। कहिए न कि मैंने जवानी में बुढ़ापा जिया है।
मुक्त कीजिये न मुझे इस डर से, कि मेरा जीवन मेंरा नही है। बताइये कि ये मेरा ही है।
मेरे सर पर हाथ रख कर मन्त्र पढ़ दीजिये आज,मेरी स्वतन्त्रता का। जीवन को जी लेने का। फाड़ दीजिये वो सारे अपराधपत्र जो मैंने खुद को लिखे थे कल रात।
जानते है न , आपको निराश नही करूँगी।
ये आप ही जान सकते है, आप ही कर सकते है।
मैं इंतज़ार कर रही हूँ आपकी बात का।
आपकी
बेटी

Thursday 17 November 2016

नागरिकता का त्याग

स्वर्ग की जम्हाई के बीच नर्क के मील के पत्थर के पास, कपड़े सुखाती देवपुत्री। जब पलट पलट कर मनुष्य की राख से काले हुए आसमान को देखती है। अचानक से वो अपने प्रेमी को याद करते हुए गीले हाथों से राख को छु कर रोना चाहती हैं।
इस स्वप्न से उठकर स्वर्ग की नागरिकता का त्यागपत्र लिखना कितना आसान लगा उसे।

Sunday 13 November 2016

'प्रेम सखी'

तुम्हारी याद एक तकिए की दूरी पर पर हाथ बढ़ा कर बुलाती है। और मैं, मुस्कुराते हुए तुम्हारी हथेली में प्रेम रेखा को जीवन रेखा से मिलते हुए देखता हूँ। कितनी अजीब है, तुम्हारी हथेली। जीवन रेखा ही प्रेम रेखा बनी है। तभी तो कहता हूँ, कि तुम्हारा प्रेम दैहिक नही है। आत्मिक भी नही है, आध्यात्मिक है भाई! वो प्रेम जो मेरा ध्यान दृढ़ करता है ईश्वर के आँगन में। पर सुनो, तुम्हे देवदास की तरह माथे पर चोट नही दे जाऊंगा। हाथ बढ़ा कर नदी से खीँच लाऊंगा, हर उस रोज जब तुम पानी का बहाव तेज होगा।
तुम सखी हो आखिर।

'पल पल पलक'

तुम्हारा हर प्रेम, तुम्हारी बाट जोहती पलकों के भारी होने की वजह को मिटाते हुए जिंदगी जीने को मजबूर करता प्राकृतिक तन्त्र हैं। जीना चाहिए, हर आशा के किनारे। क्योंकि आशा-प्रेम और जीवन का हर एक क्षण कम से कम उतना तो सत्य है ही, जितना सत्य तुम्हारा होना हैं। पल पल जीना, ताकि पलकों पर जमी नमक की परत पिघल कर होंठो तक पहुँचे। और चखने भर से जीवन की मिठास का साक्षात् हो सके।

'मुस्कुराहट की आहट'

एक शालीन सी मुस्कान, आते जाते सड़क पर सूरज की जमानत में बिखरती है। और हम गुजर जाते हैं। रोज होता है, मैकेनिक की केबिन वाला हो या पान की थड़ी वाला। कितनी हसीन है सुबह, विश्वात्मा हर रोज अपना पैगाम यूँ ही पहुँचाता है। शाम को हिसाब रखने बैठता हूँ तो सुबह की जमाओ से ही हिसाब कॉपी भर जाती हैं, दिन भर की तमाम व्यस्तताओं को ढक देना होता है इन मुस्कुराहटों के नीचे। कल एक महाशय मिले, बोले माटसाब गुटखे मत खाया करों, सूट नहीं करता है। मैंने कह दिया चचा छोड़ दिए हैं। हम फिर गुजर गए। 
इन गुजरने के बीच जिंदगी चहक जाती हैं, पता नही यह फैसला कब हुआ की सर झुका कर नही चलूँगा सड़क पर। लोग दिखते हैं, तो दुआ सलाम होती हैं। जिंदगी यूँ भी तमाम होती हैं।
छत पर सोना कई तरह से मुफीद है, आसमान और सवाल दोनों अपनी अपनी शक्ति से विस्तारित होते दिखाई देते हैं। सपने और कल्पनाएँ भी। कई बार तो दो बार सो लेता हूँ, दो बजे तक और दो बजे बाद सुबह छह बजे तक। ये दो रातो का सफर बहुत हद तक खुद को दो हिस्सों में देखने का मौका देता हैं। एक, आम इंसान सा जो खुद के श्मशान में पौधे रोपने की कल्पना करता हैं। दूसरा, एक दृष्टा जो इंसानियत,देशी पहचान और समाज को दूर से बदलता और लुढ़कता देखता है। लुढ़कता, यानि की बिना प्रयास के गतिमान होता। 
एक बात कहूँ, कहने से कुछ नही होता। करने से कुछ होता हैं। जीने से बहुत कुछ होता है, और करने और जीने के साथ खुद को बदलने से सब कुछ होता हैं। समाज, मत और स्वतन्त्रता के उपासकों को यह समझ आ जाता है। सो वे लुढ़कते हुए समय में अपना जंतर बो देते हैं। फिर कायनात आभारी सी आगे बढ़ जाती हैं।
हमे खुद में तात्विक बदलाव करने होते है, शल्य चिकित्सा से गहन, महीन और बारीक। तभी जीवन के प्रश्न छत पर सोते हुए हँसते हुए गुजर जायेंगे। वरना क्या है, हम और आप आज है। कल मर जायेंगे।

'प्री दोपहरी'

उम्रदराज अक्टूबर की देर सुबह खेत मे काम करती स्त्री जैसी लगती हैं। थोड़ी ऊब,थोड़ी थकान, आधा खेत खुद जाने की मुस्कान और कमर पर हाथ धर कर घर से आती हुई रोटी का इंतजार। हाथ में लटकी हुई हँसिया भी थोड़ी गर्म होकर थोड़ी थोड़ी देर में मुस्कुरा उठती है, जैसे की छाया का प्रेम उसे बुला बुला कर थक गया हो।

' राधा! आज उमस है मौसम में'

गोकुल, मथुरा, वृन्दावन के मन्दिरों और आश्रमों में कृष्ण और राधा नही मिलती। यहाँ की मिट्टी और हवा में मिलते है दोनों। 
' राधा! आज उमस है मौसम में'
'कान्हा ! तुम्हारे पैरों को चूमने से हवा में नर्म भाप उड़ी थी कल शाम। उस पानी को बादलों ने लेने से इंकार कर दिया, धरती भी उसे छूना नहीं वरन् देखना चाहती थी। वही उमस तुम्हारी उंगलियो की पोरो पर आ बैठी है चुपके से। 
प्रेम का होना और मौसम का रोना एक नहीं है सखा, प्रेम के रोने से मौसम होता हैं। और मौसम के रोने से प्रेम होता हैं। 
असंख्य रोगों का निदान इस दवा से हो जायेगा, जब लोग मौसम की मासूमियत पर वातायन खोल देंगे। बाहरी उमस उन्हें लपेट लेगी धीरे धीरे। फिर बंगाल में गौरांग प्रभु नाच उठेंगे। गुजरात में रास झूम उठेगा। ये अटक से कटक के बीच फैली चादर हैं, जो तुम्हें उमस जैसी दिखती हैं। होठो से निकली साँझ की सरगम को तुम न समझ सकोगे, पूछ लिया करो। प्रेम मेरे हिस्से की व्याख्या है और तुम्हारे हिस्से का मौसम। समझे बुद्धू!'

तुम मेरे प्रेम का लहु हो, जिसे आजकल स्वतंत्रता की आवाज के रूप में याद कर रहा हूँ।

तुम मेरे प्रेम का लहु हो, जिसे आजकल स्वतंत्रता की आवाज के रूप में याद कर रहा हूँ।

'हवा किस ओर बह रही है कान्हा !''

'हवा किस ओर बह रही है कान्हा !''
-" हमारे प्रेम के गर्व से प्रेम के विश्वव्यापी होने की दिशा में राधे। जमुना का तट इस प्रेम का शालीन दृष्टा है, जामुन के पेड़ मुस्कुराते हुए मौन पथिक है। तुम इनसे पूछोगी तो बता नहीं पाएंगे, प्रेम का विस्तार। तुम्हे नदी तटों के किनारे की घास से पूछना होगा, पेड़ो की डाल पर बैठी चिड़िया के कान सूँघने होंगे।
हवा का बहाव और मन का भाव एक जैसा लगता हैं। फिर भी प्रेम की तरफ बढ़ चलने वाली हवा भाव के विरह को लांघ कर बढ़ जाती है। सो आत्मसमर्पण करते हुए भाव हवा की कैद में जकड़ जाते हैं।
पता है राधा! तुम पूछती हो तो लगता है हृदय पर जमी धूल को हथेली से बुहार रही हो। तुम प्रश्न पूछकर भी शिष्या नहीं रहती, और मैं उत्तर खोजकर भी गुरुत्व प्राप्त नही कर पाता। इसीलिए तुम शिष्या से सखी हो जाती हो। अब समझ भी लो की हवा किस ओर बह रही हैं, कभी तुम्हारी ओर, कभी मेरी ओर।
इस बीच हम लघु ब्रह्माण्ड रचकर प्रकृति को वशीभूत करते है। हवा की दिशा हमारे भीतर के भावों को घनीभुत करके प्रेम का रास्ता साफ कर देती है।
वो पंछी देखो, कितना खूबसूरत हैं। देखो तो, हवा की दिशा में।"
#राधा_कृष्ण

" कान्हा ! तुम्हारी कोरों में पानी क्यों रहता है दिनभर आजकल ?"

" कान्हा ! तुम्हारी कोरों में पानी क्यों रहता है दिनभर आजकल ?"
- " प्रेम में पड़ा हुआ मनुष्य इतना तरल होने लगता है, कि भीतर का भाव पानी होकर रिसता है दिन भर। पेड़ से पत्ती गिरी नहीं कि दिया मन रोने, पैरों से उठती हुई धूल या दिये से मिटते हुए अँधेरे के दर्द से भी मन तरल-सरल-विरल होने के बहाने ढूँढता हैं। किसी ने कहा था एक बार, जब प्रेम होगा तो कुछ कह नहीं पाओगे। रो दोगे बिना कारण। इसलिए , दिनभर आँखों की कोरो में पानी भरा रहता हैं।
कल जब कुछ न सूझा तो इसी बात पर आँसू टपकने लगे। मैं देखता रहा निरन्तर, आंसुओं को गिरते और मन को उठते। लगा जैसे इसी तरह बह जाना है निरन्तर। राधा! मुझे प्रेम हो चला हैं। पानी आँखों की नियति है अब। "

राधा कृष्ण

दक्षिण अक्षौहिणी,
कुरुक्षेत्र।
प्रिय राधा,
मेरे प्रेम की लौह तत्व, मेरी स्वतन्त्रता की सूक्ष्म धूमकेतु।
कल से कुरुक्षेत्र में युद्ध रचने जा रहा हैं। और अर्जुन को देख कर लग रहा है, वो हताश होकर शस्त्र त्याग देगा कल युद्ध क्षेत्र में।
जानता हूँ गीत गाकर, गीता कहनी होगी। तटस्थता की प्रीत पढ़नी होगी कल।
अकेला नहीं कर पाउँगा यह सब। सो तुम्हे पत्र लिख कर बुला रहा हूँ। अट्ठारह दिन के लिए आ जाओं राधा।
तुमने ही कान्हा को कृष्ण बनाया है। सारा जीवन तुम्हारे सिखाये को पढता हूँ, बांचता हूँ। अटक जाता हूँ तो तुम्हे याद करके मुस्कुरा देता हूँ। इस बार फिर से तुम्हारी जरूरत आन पड़ी हैं।
पता है राधे! हताश मन की दरारे भरने के लिए स्वयं का हत मन भरा होना चाहिए पहले, प्रेम से। अर्जुन को उठाने से पहले मैं तो उठ जाऊँ पहले। तुम आ जाओं, सब ठीक होगा फिर।
तुमने सिखाया है प्रेम के रास्ते में सांख्य और निष्काम योग का दर्शन, तुमने बताया है धर्म की हानि में ईश्वर का आगमन, तुमने समझाया है मेरा योगेश्वर होना और श्री-विजय होने का सम्पूर्ण आत्मविश्वास।
गीता में तुम्हे कहूँगा प्रियम्। गीता तुम कहोगी, लो मैं निष्काम निष्कासित होकर फिर से तुम्हे सुपुर्द करता हूँ स्वयं को।
आ जाओं।
तुम्हारा और सब का
कृष्ण

'मुक्ति पत्र'

एक सुबह ; देवताओं को एक मुक्तिपत्र भेजना था समय के बन्दी को। वे तय नहीं कर पा रहे थे, पत्रवाहक का नाम। मुश्किल यह थी कि समय का बन्दी चौदह वर्ष काट चुका था और पहले ही दिन से देवताओं को मालूम था कि वह बेकसूर था। 
अंततः बन्दी की पूर्व प्रेमिका को चुना गया मुक्तिपत्र की वाहिका के तौर पर। 
जब उसे बुलाया गया, वह स्वर्ग के दरवाजे पर रुक ही रुक गई। उसने बन्दी का नाम दीवार पर पढ़ा और मना कर दिया पत्र ले जाने के लिए। 
अन्ततः एक चरवाहे की लड़की को लाया गया, वह अनपढ़ तो थी ही, गणित में भी कमजोर थी। उससे तमाम तथ्य छुपाए गए, उसे चाँदी की पायल पहनाई गई और भेज दिया उस टापू पर जहाँ बन्दी बन्द था।
तहखाने में उतरते हुए पायल का एक एक घुँघरू टूट कर सीढ़ियों से लुढ़कता जा रहा था। बन्दी ने देखा इन घुंगरुओ में देवताओं को रोते और माफी मांगते। थाल में मुक्तिपत्र लिए जब चरवाहन पहुँची तो बन्दी ने उसके पिता का नाम पूछा। वह ठीक ठीक नहीं बता पाई। बन्दी ने कारावास की पिछली दीवार की तरफ ऊँगली करते हुए कहा, 'ये है ज्यूस जिसे वेदों में धौस कहा गया है। ये तुम्हारा पिता है चरवाहिन।
देवताओं के कपड़े जल गए होते, इंसानो के पर कट गए होते सीढ़ी उतरते हुए। तुमने घुँगरू उड़ेल दिए यहाँ।
बन्दी ने बरामदे में मुक्तिपत्र चिपकाने की प्रार्थना की, घुटनों पर बैठा और हथेली के आचमन में इकठ्ठे कर लिए चरवाहिन के सारे आँसू।
आगे क्या हुआ पता नहीं, सूरज ने छिपते वक्त बताया की अंतिम बार बन्दी के पैरो पर खड़े होते था उसने चरवाहिन को ।

'दोपहरी की प्रार्थना'

पलकों के जवाब होठो पर लिखे मिले, और होठो के सवाल दिल में सिले मिले। मैं बहुत बार कहता रहा अपने यार से, कम रोया कर। हर बार उसके बाल मेरे तकिये पर उलझे उलझे मिले। 
हम मिले तो ऐसे कि रतजगों के किस्से बिखरे मिले, और जब जाने को उठे तो हाथो से हाथ सिले मिले। 
कब तक उसकी आँखों के किस्सों को याद करूँ, रब से दुनियाँ की सलामती की फरियाद करूँ; उससे पूछा तो बहुत देर तक चुप रहा। फिर बोला जब तक मिले, ख़ुशी से मिलें, गुम होकर एक दूजे को ऐसे ढूंढेंगे मेले में कि दुनियाँ की सलामती की दुआओं में हमारे मिलने -खोने और फिर से मिलने के किस्से और हिस्से मिलें।

पिघलो पिता

पूस की पन्द्रहवीं रात थी, और उसकी प्रार्थनाओं का पहला दशक गुजरे आधा दशक हो चुका था। समुद्र किनारे घुटनों के बल बैठा-खड़ा कहता था; 'पिघलो पिता-पिघलो पिता..'
एक रात आँसू सी आँखों वाली देवकन्या रेत पर चलती हुई आई। उसने सीधे ध्यानमग्न अभ्यासी के मस्तक पर दायाँ अँगूठा रख दिया, शक्तिपात करना चाहती थी। 
वो हँसा मन ही मन और लीन हो गया फिर से। अगली सुबह रेत पर उसके शरीर से उतरे नमक का ढेर था। उसके होठो से उतरी मिट्टी की परत से एक चिड़िया खेल रही थी, और निरन्तर पानी झर रहा था देह से। देवकन्या सर झुकाये अँगूठा टिकाये लगातार बुदबुदा रही थी।
वह अब उठना चाह रहा था, उठा तो देखा उसके घुटनों के घावों पर बसन्ती चुनरी बाँध गई थी देवकन्या।
अगली शाम को चट्टान पर खड़े होकर, जंगल बुहारती देवकन्या से पूछा उसने। "तुम मेरे मस्तक पर अँगूठा टिकाये क्या बुदबुदा रही थी, मेरे साथ हुआ क्या है आखिर बताओं तो ?"
देवकन्या बोली , " मत जानो तुम्हारे साथ क्या हो रहा है "
"और तुम क्या बुदबुदा रही थी?"
देवकन्या बोली , " पिघलो पिता ! "
'प्रातःकालीन प्रार्थना'

'रौशनी'

देवताओं की सभा में हस्तक्षेप की तरह देवरानी दाखिल हुई। शिकायत पत्र लेकर। देवरानी ने कहा की सोते वक्त रोज छत से नमकीन पानी टपकता है उसके माथे पर। उसने सोने की जगह बदल कर भी देख ली, टपकना जारी हैं। छत नहीं, सारा स्वर्ग टपकता है रात्रि के हर प्रहर।
जाँच करवाई गई तो मालूम हुआ की स्वर्ग का चौकीदार रात को छत पर अलाव जला कर बैठता है। दिन में लिखी चिट्ठियाँ अलाव में एक एक कर जलाता है, जिनसे निकला नमकीन पानी छत को छेदता हुई देवरानी के माथे पर आ गिरता है।
देवताओं के राजा से देवरानी ने कहा कि उसे चौकीदार के घर की मिट्टी चाहिए। ताकि वो स्वर्ग की छत लीप सके और बची हुई मिट्टी से अपने माथे की दरारे भर सके।
पर उसे बताया गया की यह सम्भव नहीं है, चौकीदार का घर नर्क की आग में जलता है, देवताओ का वहाँ जाना असम्भव हैं।
देवरानी ने कहा , " मैं कल खाली कागज और कलम लेकर स्वर्ग की छत पर जाऊँगी, स्वर्ग के चौकीदार को दूँगी। सारी रात मशाल पकड़े खड़ी रहूँगी। ताकि वो चिट्ठियाँ लिखता रहे। उसे रौशनी की जरूरत है। मैं स्वर्ग नर्क की दहलीज से मशाल बनाकर उसके लिए रौशनी का इंतजाम करुँगी। वो स्वर्ग का चौकीदार हैं।

ईश्वर की नींद

जीवन और मृत्यु के बीच झूले घुटनों में लगी जंग को या तो ईश्वर हटाए या फिर बसंती ओढनी से झांकती ईश्वर की बेटी. प्रेम के मन्दिरों की घंटियाँ शहर छोड़ने के बाद भी कानों से बंधी हुई रहती हैं.दो और दो चार गणित की किताबों के पहले लेकिन ईश्वर की पुत्री की रफ कॉपी के आखरी पन्ने पर मिलते हैं.
जंग-बसंत-घंटियाँ-और रफ कॉपी जीवन के सबसे मासूम पलों की रोमिल आवाज हैं. जब जब सभ्यता पर आक्रमण के खतरे बढ़ेंगे, सांस्कृतिक संकट उछल कर कूद पड़ेंगे. आवारा मसीहाओं का एक दल ईश्वर की पुत्रियों के दुपट्टो को प्रेम के झरनों में धो कर जंगली आक के पास वाली झाड़ी में सुखाता मिलेगा. जंग टालने का, बसंत को न्यौता देने के,मन्दिरों में घंटियाँ कसने का यह शालीन प्रयास हैं.
ईश्वर की पुत्री अपनी रफ कॉपी में लिखती है सारी घटनाएँ और प्रेम के सरस पत्र, और मिटाती है वो सभ्यता,संस्कृति के माथे पर जमी हुई धूल. वह आवारा मसीहाओ के लोकगीतों को गुनगुनाती है रात भर.
इस तरह ईश्वर चैन की नींद सोता है.

'क्रांति का ताबीज'

वह लौहार के पास पहुँचकर ऊखड़ू बैठकर बोला, क्रांति का ताबीज बनाना हैं। लौहार आग में हवा देते हुए बोला; पाँच गाँवो की मिट्टी लाओ, सात तालाबों में हाथ धो कर आओं, प्रेमिका के दुप्पटे का रंगीन टुकड़ा, खेत में गिरे टूटे हल का फाल, संगीन के खून से सना कौना, अपने पिता के टूटे हुए चार बाल रूसो की किताब के पन्ने में लपेट कर ले आना कल सुबह। ताबीज बना कर दे दूँगा। जाओ अब।

'प्रातःकालीन प्रार्थना'

अपने पिता को लिखे गए मेरे माफीनामे अभी भी नदी के एकांत किनारों, बगीचों के शांत कोनो,सुनसान सड़को और रात की खुली छतों पर टंके पड़े हैं. कितने पढ़े गए, कितने आधे पढ़े गए, कितने बिन पढ़े ही जेब में रख लिए गए . मगर हर माफ़ीनामा मेरे तरल होने का निशान था पहाड़ से नदी होने का निशान था . जब खुद को पिता के रूप में देखता हूँ, अपने पिता को अपनी संतान को गले न लगा पाने के संकोच को जान जान कर खूब रोता हूँ. नशे में ही सही, ईश्वर कभी मेरे पिता से उस संकोच को हर ले ताकि वे मुझे गले लगा सके. और हम इस दुनिया में ही बोधिसत्व सा महसूस कर सके, उन पलों में.

' स्थितप्रज्ञ'

पंचवटी में बैठकर आसमान से समय की याचना करता है, धरती को माँ कहकर अँगूठे से हल रेखाएं खींचता है। वह आदमी मुस्कान का व्यापार करता है, आँखों में सांप की उतरी हुई केंचुली लगाकर। ईश्वर उसे पुत्र कहने से नही घबराता अब, उसके पास प्रेम का झरना वसीयत में लिखा पड़ा हैं। 

देवताओं की बेटी

कमर पर छाती बांध कर हम तीन लोग सफर पर निकले थे। हमने खुद से वादा किया था कि हमारी जान हथेली के रास्ते निकलेगी और जीभ तालु से चिपककर हमे रास्ता बताएगी। 
चलते चलते हम एक कुटिया तक पहुँचे, लगा यही तक आना था बस। फिर हमने नाखूनों से तालाब खोदा, आँसुओ से गुलाब सींचे और ईश्वर को निमंत्रण पत्र लिखे; अपने पसीने के इत्र से। 
ईश्वर ने बहाना बनाया कि वह नही आ सकता , अगले पखवाड़े तक। फिर हमने एक दूसरे पर कविताएँ बाँची। पहाड़ी पर चढ़कर राते और रास्ते नापे। और भेड़ो पर लिखे लोकगीत गुनगुनाए। 
कई रातों तक सिलसिला चलता रहा, समां बंधता रहा, गीत चुकते रहे, तारे चुगते रहे हमारी यादों का अनाज। एक दिन चाँद से देवताओं की कन्या उतरी, उसने .........
आगे क्या हुआ! क्यों हम तीन लोग वहाँ आए, क्यों गीत गाए, क्यों देवताओं की बेटी ने पहाड़ की चट्टान पर लिखे गीत पढ़े। हम नही जानते। यह जान पाए , बस, की उन तीन दिनों में एक ही आदमी तीन लोग बनकर वहाँ था।

अधिकारपत्र

समय के घाव भरने का अधिकारपत्र प्रेम की जेब में पड़ा मुस्कुरा ही रहा था, कि तालाब से उठता हुआ धुंआ अपनी पीड़ा लेकर पहुँच गया।
प्रेम क्या करता! उसने तालाब की मछलियों के खातिर खुद को डुबो दिया तालाब में। और तालाब आज कमल की फसल से आबाद हैं।

स्वर्ग का वार्तालाप

स्वर्ग के पुस्तकालयाध्यक्ष ने किताब रखते हुए कहा कि इंसानियत झट से रो देती हैं। दुःख के बादल किसी भी देश से हो कर गुजरे, वो इंसानियत को भिगोते हुए गुजरते हैं। यह सुनकर द्वारपाल बोला, अपराह्न का खाना खाते हुए मैंने भी देखा है कि स्वर्ग के किवाड़ों पर इंसानियत की प्रार्थनाएँ कुण्डी खड़काती है। और बिना पावती के लौट जाती हैं।
देवपुत्री सुबह सुबह इन्ही प्रार्थनाओं को बीनने धरती पर उतरती हैं। अपने पिता के तकिए पर इन चिठ्ठियों को रखकर अपने कमरे में लौट जाती है। मगर चिठ्ठियों की स्याही को छुड़ाते छुड़ाते वह भी सुबक पड़ती है रात के दूसरे प्रहर।
इंसानियत देवताओं का भी पीछा नही छोड़ती। देवपुत्रियाँ इसी लिए इंसानों के प्रेम में पड़ जाती है। - पुस्तकालयाध्यक्ष ने कहा।

Sunday 30 October 2016

रौशनी

देवताओं की सभा में हस्तक्षेप की तरह देवरानी दाखिल हुई। शिकायत पत्र लेकर। देवरानी ने कहा की सोते वक्त रोज छत से नमकीन पानी टपकता है उसके माथे पर। उसने सोने की जगह बदल कर भी देख ली, टपकना जारी हैं। छत नहीं, सारा स्वर्ग टपकता है रात्रि के हर प्रहर।
जाँच करवाई गई तो मालूम हुआ की स्वर्ग का चौकीदार रात को छत पर अलाव जला कर बैठता है। दिन में लिखी चिट्ठियाँ अलाव में एक एक कर जलाता है, जिनसे निकला नमकीन पानी छत को छेदता हुई देवरानी के माथे पर आ गिरता है।
देवताओं के राजा से देवरानी ने कहा कि उसे चौकीदार के घर की मिट्टी चाहिए। ताकि वो स्वर्ग की छत लीप सके और बची हुई मिट्टी से अपने माथे की दरारे भर सके।
पर उसे बताया गया की यह सम्भव नहीं है, चौकीदार का घर नर्क की आग में जलता है, देवताओ का वहाँ जाना असम्भव हैं।
देवरानी ने कहा , " मैं कल खाली कागज और कलम लेकर स्वर्ग की छत पर जाऊँगी, स्वर्ग के चौकीदार को दूँगी। सारी रात मशाल पकड़े खड़ी रहूँगी। ताकि वो चिट्ठियाँ लिखता रहे। उसे रौशनी की जरूरत है। मैं स्वर्ग नर्क की दहलीज से मशाल बनाकर उसके लिए रौशनी का इंतजाम करुँगी। वो स्वर्ग का चौकीदार हैं।
'रौशनी'

पिघलो पिता

पूस की पन्द्रहवीं रात थी, और उसकी प्रार्थनाओं का पहला दशक गुजरे आधा दशक हो चुका था। समुद्र किनारे घुटनों के बल बैठा-खड़ा कहता था; 'पिघलो पिता-पिघलो पिता..'
एक रात आँसू सी आँखों वाली देवकन्या रेत पर चलती हुई आई। उसने सीधे ध्यानमग्न अभ्यासी के मस्तक पर दायाँ अँगूठा रख दिया, शक्तिपात करना चाहती थी।
वो हँसा मन ही मन और लीन हो गया फिर से। अगली सुबह रेत पर उसके शरीर से उतरे नमक का ढेर था। उसके होठो से उतरी मिट्टी की परत से एक चिड़िया खेल रही थी, और निरन्तर पानी झर रहा था देह से। देवकन्या सर झुकाये अँगूठा टिकाये लगातार बुदबुदा रही थी।
वह अब उठना चाह रहा था, उठा तो देखा उसके घुटनों के घावों पर बसन्ती चुनरी बाँध गई थी देवकन्या।
अगली शाम को चट्टान पर खड़े होकर, जंगल बुहारती देवकन्या से पूछा उसने। "तुम मेरे मस्तक पर अँगूठा टिकाये क्या बुदबुदा रही थी, मेरे साथ हुआ क्या है आखिर बताओं तो ?"
देवकन्या बोली , " मत जानो तुम्हारे साथ क्या हो रहा है "
"और तुम क्या बुदबुदा रही थी?"
देवकन्या बोली , " पिघलो पिता ! "

बन्दी

एक सुबह ; देवताओं को एक मुक्तिपत्र भेजना था समय के बन्दी को। वे तय नहीं कर पा रहे थे, पत्रवाहक का नाम। मुश्किल यह थी कि समय का बन्दी चौदह वर्ष काट चुका था और पहले ही दिन से देवताओं को मालूम था कि वह बेकसूर था।
अंततः बन्दी की पूर्व प्रेमिका को चुना गया मुक्तिपत्र की वाहिका के तौर पर।
जब उसे बुलाया गया, वह स्वर्ग के दरवाजे पर रुक ही रुक गई। उसने बन्दी का नाम दीवार पर पढ़ा और मना कर दिया पत्र ले जाने के लिए।
अन्ततः एक चरवाहे की लड़की को लाया गया, वह अनपढ़ तो थी ही, गणित में भी कमजोर थी। उससे तमाम तथ्य छुपाए गए, उसे चाँदी की पायल पहनाई गई और भेज दिया उस टापू पर जहाँ बन्दी बन्द था।
तहखाने में उतरते हुए पायल का एक एक घुँघरू टूट कर सीढ़ियों से लुढ़कता जा रहा था। बन्दी ने देखा इन घुंगरुओ में देवताओं को रोते और माफी मांगते। थाल में मुक्तिपत्र लिए जब चरवाहन पहुँची तो बन्दी ने उसके पिता का नाम पूछा। वह ठीक ठीक नहीं बता पाई। बन्दी ने कारावास की पिछली दीवार की तरफ ऊँगली करते हुए कहा, 'ये है ज्यूस जिसे वेदों में धौस कहा गया है। ये तुम्हारा पिता है चरवाहिन।
देवताओं के कपड़े जल गए होते, इंसानो के पर कट गए होते सीढ़ी उतरते हुए। तुमने घुँगरू उड़ेल दिए यहाँ।
बन्दी ने बरामदे में मुक्तिपत्र चिपकाने की प्रार्थना की, घुटनों पर बैठा और हथेली के आचमन में इकठ्ठे कर लिए चरवाहिन के सारे आँसू।
आगे क्या हुआ पता नहीं, सूरज ने छिपते वक्त बताया की अंतिम बार बन्दी के पैरो पर खड़े होते था उसने चरवाहिन को ।
'मुक्ति पत्र'

Tuesday 27 September 2016

बाजीराव मस्तानी :गुरुर और सुरूर का वाटर लू ।

बाजीराव मस्तानी :गुरुर और सुरूर का वाटर लू -----------------------------------
कुछ भी कहिए रणवीर के अलावा किसी और अभिनेता का माद्दा नहीं था बाजीराव को जीने का । दरबार में आते हुए बाजीराव की पिंडलियों की ऊर्जा शरीर का आकार कैसे लेती है , शुरूआती दृश्यों में देखिए । उदंड प्रेमी कैसे अट्टहास भरता है - पेशवा को कचहरी में गद्दी पर बैठते हुए देखिए ।
काशीबाई का चरित्र इस करीने से रोपा गया है की आप पत्नी के सोतिया डाह को सीधे पकड़ सकते है । फ़िल्म अपने आप में प्रेम का काव्य है , सोते हुए पढ़िए या फिर रोते हुए - आपकी इच्छा !
बाजीराव मस्तानी असल में समय को पार करती हुई वर्तमान की साजिश में लहूलुहान कथा है । ब्राह्मण सेनापति जिसने हिन्दू पद पादशाही का सिद्धान्त गढ़ा, अपना जीवन घोड़े की पीठ पर गेहूं की बलिया मसल कर खाते हुए गुजारा , उसे अगर किसी मुस्लिम लड़की से प्रेम हो जाए तो सेनापति के मनोविज्ञान की थाह आपकी बुद्धि के दायरे से बाहर हो जाती है । प्रेमिका इतनी दुःसाहसी की पूरे समय अपने चेहरे पर पत्नी और रखैल के द्वन्द को जीती है । अपने प्रेम के लिए वह युद्ध कला छोड़कर शुद्ध कला के जीवन में प्रवेश करती है और आपको भी प्रेम दीवानगी का पाठ पढ़ाने का प्रयास करती है । आप पढना चाहे न चाहे , अलग बात है  .
फ़िल्म में कैमरा जिस अक्ष से गुजरता है उस अक्ष से आप शायद कभी न गुजरे हो , दिल शायद उन अक्षांशों और देशान्तरों से बिलख कर निकला हो शायद कभी ! सीढ़ी उतरती हुई नायिका , नाचती हुई कोरस पात्र , पानी के फव्वारों के पीछे से गुजरता हुआ दृश्य आपको ट्रांस में ले जाने के लिए नाकाफी नहीं है । पानी समय को पार पाने का यंत्र है फ़िल्म में । जब भी कोई पात्र पानी में उतरता है , कहानी में समय अपनी लय खो देता हुआ सा लगता है । अंतिम दृश्य में बाजीराव पानी में तलवार चलाता है - आप पसीना पसीना है ।
दुआ कीजिए आपको कभी इश्क न हो ...।

बाजीराव मस्तानी :गुरुर और सुरूर का वाटर लू ।

बाजीराव मस्तानी :गुरुर और सुरूर का वाटर लू -----------------------------------
कुछ भी कहिए रणवीर के अलावा किसी और अभिनेता का माद्दा नहीं था बाजीराव को जीने का । दरबार में आते हुए बाजीराव की पिंडलियों की ऊर्जा शरीर का आकार कैसे लेती है , शुरूआती दृश्यों में देखिए । उदंड प्रेमी कैसे अट्टहास भरता है - पेशवा को कचहरी में गद्दी पर बैठते हुए देखिए ।
काशीबाई का चरित्र इस करीने से रोपा गया है की आप पत्नी के सोतिया डाह को सीधे पकड़ सकते है । फ़िल्म अपने आप में प्रेम का काव्य है , सोते हुए पढ़िए या फिर रोते हुए - आपकी इच्छा !
बाजीराव मस्तानी असल में समय को पार करती हुई वर्तमान की साजिश में लहूलुहान कथा है । ब्राह्मण सेनापति जिसने हिन्दू पद पादशाही का सिद्धान्त गढ़ा, अपना जीवन घोड़े की पीठ पर गेहूं की बलिया मसल कर खाते हुए गुजारा , उसे अगर किसी मुस्लिम लड़की से प्रेम हो जाए तो सेनापति के मनोविज्ञान की थाह आपकी बुद्धि के दायरे से बाहर हो जाती है । प्रेमिका इतनी दुःसाहसी की पूरे समय अपने चेहरे पर पत्नी और रखैल के द्वन्द को जीती है । अपने प्रेम के लिए वह युद्ध कला छोड़कर शुद्ध कला के जीवन में प्रवेश करती है और आपको भी प्रेम दीवानगी का पाठ पढ़ाने का प्रयास करती है । आप पढना चाहे न चाहे , अलग बात है  .
फ़िल्म में कैमरा जिस अक्ष से गुजरता है उस अक्ष से आप शायद कभी न गुजरे हो , दिल शायद उन अक्षांशों और देशान्तरों से बिलख कर निकला हो शायद कभी ! सीढ़ी उतरती हुई नायिका , नाचती हुई कोरस पात्र , पानी के फव्वारों के पीछे से गुजरता हुआ दृश्य आपको ट्रांस में ले जाने के लिए नाकाफी नहीं है । पानी समय को पार पाने का यंत्र है फ़िल्म में । जब भी कोई पात्र पानी में उतरता है , कहानी में समय अपनी लय खो देता हुआ सा लगता है । अंतिम दृश्य में बाजीराव पानी में तलवार चलाता है - आप पसीना पसीना है ।
दुआ कीजिए आपको कभी इश्क न हो ...।

पिंक फिल्म के बहाने औरत का स्पेक्ट्रम

क्या पिंक नाम की फिल्म पर बिना फिल्म देखें ही समीक्षात्मक टिप्पणी की जा सकती है . हाँ , क्यों नहीं. फिल्म, पिंक,और महिला को हम जानते ही है . और अगर पिंक भारतीय महिलाओं पर प्रकाश डालती है, तो बेशक टिप्पणी की जा सकती हैं .
सोचता हूँ, इस फिल्म का नाम 'पिंक' क्यों रखा गया है . क्या इसलिए कि 'ब्लू' भी फिल्म ही होती है , और वह भी महिलाओं को केंद्र में रख कर ही बनाई जाती है . इस लिहाज से ही 'ब्लेक' नामक फिल्म भी महिला पर बनाई गई थी. संयोग से अमिताभ बच्चन साहब ब्लेक में भी मुख्य भूमिका में रहे थे .
'पिंक' तो नहीं देखी , मगर 'ब्लू' देखी है और अमिताभ को भी देखा है कई फिल्मो में . सवाल यह है की महिलाओ को केंद्र में रख कर बनाई फिल्में रंगों के नाम पर क्यों बनाई जा रही है. क्या इंसान की नियति रंग देखना महिलाओ के सहयोग से ही संभव है. हमारी माएँ , बहनें, पत्नियाँ, प्रेमिकाएँ रंगों का इन्द्रधनुष है क्या ? और अगर है, तो फिर अलग अलग रंगों से क्यों संकेत करते रहते है हम.
विज्ञान में 'स्पेक्ट्रम' नाम का एक फिनोमेना पढ़ा जाता है. प्रकाश को प्रिज्म से गुजारने पर प्रकाश सात रंगों में बंट जाता है. बैंगनी रंग सबसे नीचे रहता है और लाल रंग सबसे ऊपर होता है इस इन्द्रधनुषी स्पेक्ट्रम में. गहरा नीला सबसे नीचे रहता है, इसीलिए हम 'ब्लू' फिल्म को सबसे कमजोर दर्जा देते है क्या ? और लाल रंग सबसे ऊपर होता है, क्या क्रांति और महिला की स्वतंत्रता इसीलिए हमारे मष्तिष्क के स्पेक्ट्रम से बाहर है. हम डरते है शायद औरत की स्वतंत्रता से. सो ब्लू फिल्म बना कर उसकी देह पर अधिकार करके उसे लाल रंग तक यात्रा करने ही नहीं देना चाहते.
विज्ञान में एक और फिनोमेना पढ़ा जाता है. ;ब्लू शिफ्टिंग' और 'रेड शिफ्टिंग' . ब्रह्मांड को पढ़ते समय ये दोनों फिनोमेना खूब पढ़े जाते है; अगर किसी तारे से आ रही उर्जा नीले स्पेक्ट्रम की और शिफ्ट हो रही है तो वह तारा हमसे नजदीक है . और किसी तारे से आ रही प्रकाश उर्जा लाल रंग के स्पेक्ट्रम की ओर शिफ्ट हो रही है तो वह तारा हमसे बड़ी तेजी से दूर भाग रहा है .
औरत वही तारा है जो ब्रह्मांड में हमसे दूर जा रहा है . रेड शिफ्टिंग से बचने के लिए हम 'ब्लू' फिल्म का सहारा लेकर उसे कैद करना चाह रहे है. मगर कब तक सम्भव है ! रेड शिफ्टिंग से इंसानियत कब तक बचती रहेगी, मुहँ छिपाती रहेगी, भागती रहेगी .
स्पेक्ट्रम में 'पिंक' रंग नही है . मगर फिल्म का नाम है पिंक. हो सकता है औरत के लिए अपना प्रकाश और उर्जा तैयार करने की दिशा में निर्देशक नैतिक बल प्राप्त करने में खुद को कमजोर देखता हो सो वह लाल की जगह पिंक रंग के लिए ही स्थान खोज पाया हो.
अमिताभ ने 'ब्लेक' से 'पिंक' का सफ़र औरत के साथ किया है. रेखा की स्मृति, यादें, उसकी उदास तन्हाई, अमिताभ के प्रति समर्पित भूतकाल. अमिताभ ब्लेक से पिंक तक के सफ़र को उन स्मृतियों के कारण तो नहीं भर रहे है कही ? भरे , कोई दिक्कत नहीं है .
आम आदमी को इस स्मृति को भरने का साधन नहीं होना है .जीवन में रेखा रही हो या नहीं हो . कम से कम हम तो ब्लेक से पिंक तक के सफ़र को रोक सकते है . हमे प्रिज्म से गुजरती स्त्री और बिखर कर रंगों में टूटती स्त्री को स्पेक्ट्रम होने से रोकना चाहिए . गाँधी कहते थे , सत्याग्रह स्त्री के चरित्र और व्यवहार के अधिक नजदीक है. बताइए, स्त्री के जिस प्रकाश ने अंग्रेजो के सूरज को डुबो दिया. वह प्रकाश हमारे जीवन में कितने सूरज उगा सकता है . ब्लू ,ब्लेक,पिंक के रूप में स्त्री को क्यों देखते है . एक बार मन से उसके प्रकाश को प्रिज्म से गुजरने से रोकिए. यूँ ही मूल रूप से अहसास कीजिए .
रंगीन हो जाएगी जिन्दगी . इसलिए ही तो सारी दौड़ भाग रहे है हम.














Sunday 25 September 2016

एक लड़की

इतिहास की कक्षा में उस रोज एक ही लड़की आई थी। टॉपिक खत्म हुआ और अंतिम पाँच मिनट बजे थे सो मैंने पूछ लिया, पिताजी क्या करते है? पढ़ कर क्या बनना चाहती हो? वो भरी हुई थी। बोली पिताजी कुछ नही करते, सिलाई करके पढ़ती हूँ, पता नही आगे क्या करना है। मैंने कहा, जीवन बहुत मुश्किल होगा। मगर तुम्हे दो काम करने का मौका मिला है, पढ़ो और लड़ो।
वो थोड़ी बन्धी। हिम्मत से हुई।
घण्टा लगा, मैं उठकर जाने लगा तो बोली, सर रुकिए जरा। मुझसे मित्रता कर लीजिए न।
मैंने कहा, हम मित्र ही है। जो भी मदद होगी कहना।
उस रात मुझे नींद न आई। सोचा, कैसा है जीवन। उस लड़की को कितनी जरूरत है, सद्भावना की। कितने ही लोग होंगे ऐसे। उनके दुःख और संघर्ष की गिनती कौन करता होगा। ईश्वर! क्यों नही देखता वो हर कौने में।
एक रोज उस लड़की का फोन आया। बोली, आपने साफ़ साफ़ नही बताया की आप मित्रता करेंगे या नही! मैंने कहा, हाँ! हम मित्र हैं। तुम्हे मेरी मित्रता को हाँसिल करने के लिए कोई प्रयास नही करना है। जैसा तुम्हारे साथ हूँ, वैसा हर विद्यार्थी के साथ हूँ। चाहता हूँ, तुम्हारी हिम्मत बची रहे। तुम अपने साथ न्याय करो। आगे बढ़ो। रुको मत।
वो बोली, ठीक है।
इसी तरह की घटनाएं मुझे रोज कुचल कर रख देती है। हमारी लड़कियाँ सच में बहुत अकेली है, उन्हें सहारा नही हिम्मत चाहिए। मैंने दिलासा दिया तो सही उसे। मगर दुःख का जो अकेला रेगिस्तान वो मुझे कर गई। बहुत दिनों तक नही भूलूँगा।
ईश्वर! हिम्मत दे तेरे बच्चों को। ताकि वो पढ़ भी सके और लड़ भी सके।

Friday 23 September 2016

पुलिस वाले का बेटा

आदरणीय पूज्य पिताजी,
आदरणीय और पूज्य कहने से व्याकरण के नियम अस्थिर होते होंगे। मगर यूँ कहने से मैं थोड़ी देर भी स्थिर रहा, तो इस व्याकरण के दोष का अहसान होगा।
पिताजी, आज शाम को कपड़े बदलते वक्त मेरा ध्यान अपने पेट की तरफ गया। देखा कि बेल्ट बांधने से पेट पर बड़ा निशान पड़ गया है, चमड़ी उधड़ गयी है। बरसों पहले आप जब घर आ कर पुलिस की वर्दी उतारते थे रात को, तब अक्सर ऐसे ही निशान को दिखाते थे। कितना बदकिस्मत है आपका बेटा, निशान देख कर भी आपके दिन भर की निशानदेही नही कर पाता था। पापाजी, मैं दो महीने नौकरी पर क्या गया। सुबह से शाम तक कमरपट्टी क्या बांधी खुद को तीसमारखां समझने लगा। आपने पुलिस की नौकरी में छत्तीस साल कैसे बेल्ट बाँधा होगा।
खैर मैं तो शिक्षक हूँ, खड़े खड़े पढ़ाता हूँ। एक रोज बेल्ट के खिंचाव से बैठे बैठे पेट खराब कर लिया। सिर्फ एक दिन बेल्ट सहित लगातार बैठने से आंतड़िया चढ़ा ली मैंने। बहुत बार देखा की आप वर्दी पहन लेते, और अचानक वर्दी उतार कर बाथरूम चले जाते। पुलिस की गाड़ी में रात रात भर ड्राइविंग करने से आपकी पेशिया और आँते किस हद तक खिंच जाती होगी, आज पता लग रहा है मुझे।
रोज बस से जाता हूँ, रोज जाने वाले यात्रियों से अनजानी सी जान पहचान हो जाती है। एक ऐसी ही किसी स्त्री से रोज बस में मुलाकात हो जाती थी। मुझे कुछ रोज बाद लगा, मैं उसके आकर्षण में हूँ। और जब काम का बोझ ज्यादा होता तो ज्यादा आकर्षक महसूस करता।
पापाजी, आप 36 साल तक काम के दबाव में रहे, बारह घण्टे से अधिक काम किया। बदनाम महकमे में रहे। मगर मेरी मम्मी इस तरफ से निश्चिन्त रही की आप भारी दबाव में भी किसी की तरफ आकर्षित होंगे। कैसे आपने खुद को समेटा, बिखरने से बचा कर रखा। कैसे ?
मैं तो साठ दिन में साथ-दिन गिनने लगा था।
बहुत बार आपको कोसा हैं, आपकी नौकरी और हमारी परवरिश की कमियों को उलाहना दिया है। मगर आज पता लगा की आप की जगह मैं होता तो बिखर जाता। मुझे उन तमाम शिकायतों के लिए माफ़ कर दीजिए प्लीज।
पापाजी, सही बात यह हैं की आपकी मेहनत की असफलता की मीनार हूँ मैं। पर मैं सुधरूँगा, एक मौका दीजिए। मेरा तमाम जीवन संघर्ष बिना 'उफ्फ' के बीत पाया तो समझूँगा आपके पेट पर पड़े बेल्ट के निशान पर मरहम पहुँची हैं।
आपका बेटा
विक्की/ रतनजीत