कई बार मैं चाहता हूँ; अनजान गाँव की पहाड़ी पर जा कर खड़ा हो जाऊँ। मेरे वस्त्र इतने ढीले हो कि हवा का बारीक रेशा भी उन्हें हिला दे धीमे से। हवा की छोटी सी लहर उन्हें सारंगी की तरह छेड़ दे और उससे उठी तरंग को मैं सुनता रहूँ देर शाम तक, वहीं पहाड़ी पर खड़े हुए।
कई बार मैं चाहता हूँ ऐसा हो। और हर रोज, तकरीबन ऐसा हो जाना चाहता हैं। चूँकि मैं चाहता हूँ, सो हो नही पाता।
मुझे ऐसा नही चाहना चाहिए, जो हो जाता है उसे देखते रहना है।
पहाड़ी, वस्त्र और हवा मेरा वर्तमान है।
No comments:
Post a Comment