Sunday 13 November 2016

'प्रातःकालीन प्रार्थना'

अपने पिता को लिखे गए मेरे माफीनामे अभी भी नदी के एकांत किनारों, बगीचों के शांत कोनो,सुनसान सड़को और रात की खुली छतों पर टंके पड़े हैं. कितने पढ़े गए, कितने आधे पढ़े गए, कितने बिन पढ़े ही जेब में रख लिए गए . मगर हर माफ़ीनामा मेरे तरल होने का निशान था पहाड़ से नदी होने का निशान था . जब खुद को पिता के रूप में देखता हूँ, अपने पिता को अपनी संतान को गले न लगा पाने के संकोच को जान जान कर खूब रोता हूँ. नशे में ही सही, ईश्वर कभी मेरे पिता से उस संकोच को हर ले ताकि वे मुझे गले लगा सके. और हम इस दुनिया में ही बोधिसत्व सा महसूस कर सके, उन पलों में.

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