Sunday 30 October 2016

रौशनी

देवताओं की सभा में हस्तक्षेप की तरह देवरानी दाखिल हुई। शिकायत पत्र लेकर। देवरानी ने कहा की सोते वक्त रोज छत से नमकीन पानी टपकता है उसके माथे पर। उसने सोने की जगह बदल कर भी देख ली, टपकना जारी हैं। छत नहीं, सारा स्वर्ग टपकता है रात्रि के हर प्रहर।
जाँच करवाई गई तो मालूम हुआ की स्वर्ग का चौकीदार रात को छत पर अलाव जला कर बैठता है। दिन में लिखी चिट्ठियाँ अलाव में एक एक कर जलाता है, जिनसे निकला नमकीन पानी छत को छेदता हुई देवरानी के माथे पर आ गिरता है।
देवताओं के राजा से देवरानी ने कहा कि उसे चौकीदार के घर की मिट्टी चाहिए। ताकि वो स्वर्ग की छत लीप सके और बची हुई मिट्टी से अपने माथे की दरारे भर सके।
पर उसे बताया गया की यह सम्भव नहीं है, चौकीदार का घर नर्क की आग में जलता है, देवताओ का वहाँ जाना असम्भव हैं।
देवरानी ने कहा , " मैं कल खाली कागज और कलम लेकर स्वर्ग की छत पर जाऊँगी, स्वर्ग के चौकीदार को दूँगी। सारी रात मशाल पकड़े खड़ी रहूँगी। ताकि वो चिट्ठियाँ लिखता रहे। उसे रौशनी की जरूरत है। मैं स्वर्ग नर्क की दहलीज से मशाल बनाकर उसके लिए रौशनी का इंतजाम करुँगी। वो स्वर्ग का चौकीदार हैं।
'रौशनी'

पिघलो पिता

पूस की पन्द्रहवीं रात थी, और उसकी प्रार्थनाओं का पहला दशक गुजरे आधा दशक हो चुका था। समुद्र किनारे घुटनों के बल बैठा-खड़ा कहता था; 'पिघलो पिता-पिघलो पिता..'
एक रात आँसू सी आँखों वाली देवकन्या रेत पर चलती हुई आई। उसने सीधे ध्यानमग्न अभ्यासी के मस्तक पर दायाँ अँगूठा रख दिया, शक्तिपात करना चाहती थी।
वो हँसा मन ही मन और लीन हो गया फिर से। अगली सुबह रेत पर उसके शरीर से उतरे नमक का ढेर था। उसके होठो से उतरी मिट्टी की परत से एक चिड़िया खेल रही थी, और निरन्तर पानी झर रहा था देह से। देवकन्या सर झुकाये अँगूठा टिकाये लगातार बुदबुदा रही थी।
वह अब उठना चाह रहा था, उठा तो देखा उसके घुटनों के घावों पर बसन्ती चुनरी बाँध गई थी देवकन्या।
अगली शाम को चट्टान पर खड़े होकर, जंगल बुहारती देवकन्या से पूछा उसने। "तुम मेरे मस्तक पर अँगूठा टिकाये क्या बुदबुदा रही थी, मेरे साथ हुआ क्या है आखिर बताओं तो ?"
देवकन्या बोली , " मत जानो तुम्हारे साथ क्या हो रहा है "
"और तुम क्या बुदबुदा रही थी?"
देवकन्या बोली , " पिघलो पिता ! "

बन्दी

एक सुबह ; देवताओं को एक मुक्तिपत्र भेजना था समय के बन्दी को। वे तय नहीं कर पा रहे थे, पत्रवाहक का नाम। मुश्किल यह थी कि समय का बन्दी चौदह वर्ष काट चुका था और पहले ही दिन से देवताओं को मालूम था कि वह बेकसूर था।
अंततः बन्दी की पूर्व प्रेमिका को चुना गया मुक्तिपत्र की वाहिका के तौर पर।
जब उसे बुलाया गया, वह स्वर्ग के दरवाजे पर रुक ही रुक गई। उसने बन्दी का नाम दीवार पर पढ़ा और मना कर दिया पत्र ले जाने के लिए।
अन्ततः एक चरवाहे की लड़की को लाया गया, वह अनपढ़ तो थी ही, गणित में भी कमजोर थी। उससे तमाम तथ्य छुपाए गए, उसे चाँदी की पायल पहनाई गई और भेज दिया उस टापू पर जहाँ बन्दी बन्द था।
तहखाने में उतरते हुए पायल का एक एक घुँघरू टूट कर सीढ़ियों से लुढ़कता जा रहा था। बन्दी ने देखा इन घुंगरुओ में देवताओं को रोते और माफी मांगते। थाल में मुक्तिपत्र लिए जब चरवाहन पहुँची तो बन्दी ने उसके पिता का नाम पूछा। वह ठीक ठीक नहीं बता पाई। बन्दी ने कारावास की पिछली दीवार की तरफ ऊँगली करते हुए कहा, 'ये है ज्यूस जिसे वेदों में धौस कहा गया है। ये तुम्हारा पिता है चरवाहिन।
देवताओं के कपड़े जल गए होते, इंसानो के पर कट गए होते सीढ़ी उतरते हुए। तुमने घुँगरू उड़ेल दिए यहाँ।
बन्दी ने बरामदे में मुक्तिपत्र चिपकाने की प्रार्थना की, घुटनों पर बैठा और हथेली के आचमन में इकठ्ठे कर लिए चरवाहिन के सारे आँसू।
आगे क्या हुआ पता नहीं, सूरज ने छिपते वक्त बताया की अंतिम बार बन्दी के पैरो पर खड़े होते था उसने चरवाहिन को ।
'मुक्ति पत्र'