Monday 21 November 2016

लौह तन्त्र- लहू मन्त्र

हमारी हड्डियों के जोड़ के दर्द की दवा सरकार के पास बन्द है। सो बात बात पर दर्द का इशारा सरकारी गौदाम की तरफ हो जाता है। हड्डियों को गलाया हमने खुद, और दवा की आशा सरकार से! ये कहना है सरकारी ताले का। घुटनों से ग्रीस निकाल कर ताले में लगाते हुए हमने भी गीत गा दिया; ये ग्रीस ही तुम्हारी जिंदगी है और मौत की दवा भी। तुम्हे खुलना होगा तालों, भीतर अनाज के सड़ने से पहले। हमारा भूख से गिर पड़ने से पहले।

Saturday 19 November 2016

वस्त्र तरंग: सम्वाद

कई बार मैं चाहता हूँ; अनजान गाँव की पहाड़ी पर जा कर खड़ा हो जाऊँ। मेरे वस्त्र इतने ढीले हो कि हवा का बारीक रेशा भी उन्हें हिला दे धीमे से। हवा की छोटी सी लहर उन्हें सारंगी की तरह छेड़ दे और उससे उठी तरंग को मैं सुनता रहूँ देर शाम तक, वहीं पहाड़ी पर खड़े हुए।
कई बार मैं चाहता हूँ ऐसा हो। और हर रोज, तकरीबन ऐसा हो जाना चाहता हैं। चूँकि मैं चाहता हूँ, सो हो नही पाता।
मुझे ऐसा नही चाहना चाहिए, जो हो जाता है उसे देखते रहना है।
पहाड़ी, वस्त्र और हवा मेरा वर्तमान है।

तुम्हे मनुष्य होना है

'तुम्हें मनुष्य ही रहना था। जन्म के तुरन्त बाद तुम्हारा रोना, असल में मनुष्य होने का सन्ताप था। और फिर जीवन भर तुमने देवता बनने का प्रयत्न किया। क्या हाँसिल हुआ, तुम बड़े देवताओं के हाथों ठगे गए और छोटे मनुष्यों के पैरों तले कुचले गए। अकेले में तुम्हारे द्वारा बहाए गए सारे आँसू, तुम्हे यकीन दिलाना चाह रहे थे कि अभी भी वक्त है मनुष्य होने की तरफ लौट जाने का। मगर तुम्हे देवता बनना था।
मनुष्य से देवत्व की यह यात्रा तुम्हे खारिज करती गई सीढ़ी दर सीढ़ी। स्वयम्भूत देवता बन जाओगे तो खुद को अकेला पाओगें, जैसा की तुम अक्सर पाते हो। याद रखों मनुष्य कभी अकेला नही होता, उसके सुख रास्ते बांटते है और दुःख पेड़ पीते हैं। वह कभी अकेला नही होता।
देवता होना अपराध है। क्योंकि हर गलती पर देवता खुद को माफ़ नही करते, रात में अपनी पीठ को चाबुक से उधेड़ना होता है। मनुष्य तो क्षमा ले और दे कर नींद कमा लाता है हर रात।
एक बात यह भी, तुम मनुष्य होने का आनंद नही समझते हो। एक काम करो, अपनी गलती पर हँसो, अपनी अच्छाई पर व्यंग्य कसो। फिर देखो तुम्हारा होना कितना मुकम्मल हो जाता है। बुद्ध ने कहा मैं मनुष्य हूँ, समझ जाना था तुम्हे संकेत।
देवता होना मरने से इंकार करना है। सोच कर देखो, तुम कभी भी मर सकते हो क्योंकि मनुष्य हो। फिर न सन्ताप रहेगा, न दुःख , न विषाद। तुम मनुष्य होंगे तो वर्तमान को जी लेने का अर्थ समझोगे फिर।
उतर जाओ सिंहासन से, उतार दो मुकुट। फिरो लोगो में, जंगल में, पहाड़ पर। आंसू पोंछो अपने जैसे लोगो के उनका कान बनकर।
देवत्व ने तुम्हे धोखा दिया है। मनुष्य होना ईमानदारी है। '
'सुनो'

पिता को पुत्री ने लिखा

पिता को पुत्री ने लिखा।
प्रिय पिताजी,
आप कितने प्रिय है, बता नही सकती। न ये बता पाती हूँ की आप क्या है मेरे लिए।
आप जब नौकरी पर चले जाते थे मैं स्कूल से आते वक्त, समारोहों में नाचते समय और पढाई से थक कर किताब बन्द करते हुए आपके संघर्ष को जीती थी। हमेशा सोचती थी, मेरे पिता का दुःख मेरे ऊपर से गुजरकर सुख में तब्दील हो जाना है एक दिन। समय और भविष्य से मेरी लड़ाई में आप मेरी ताकत भी थे और थकान का सहारा भी।
पिताजी, अब भी सोचती हूँ की कभी लड़कियो से शौक नही किए तो क्या! पिता जी जिंदगी जी कर खुद को उन्नत तो किया हैं।
पर मैं प्रेम नही कर पाई, आपने किया था कभी। कभी पहले। हम दोनों एक से निकले, समय की भागदौड़ में न प्रेम आपको खोज पाया न मुझे पकड़ पाया। मेरी कई सहेलियाँ मुझे चिढ़ाती थी बाईजी कह कर। पर मेरे पास अदृश्य जिम्मेदारी का बोझ और पिता की इज्जत का डर था। नही किया सो नही किया।
कल भी किसी से सस्नेह बात कर ली, तो अपराध बोध से भर गई। कही पिता बुरा न मान ले। रात आँखों में कटी और आँखे आँसुओ से कटती रही। पिताजी, बात कीजिए न मुझसे।कि मेरी उम्र के अपराध मेरे हिस्से में न लिखेगा ईश्वर। कहिए न कि मैंने जवानी में बुढ़ापा जिया है।
मुक्त कीजिये न मुझे इस डर से, कि मेरा जीवन मेंरा नही है। बताइये कि ये मेरा ही है।
मेरे सर पर हाथ रख कर मन्त्र पढ़ दीजिये आज,मेरी स्वतन्त्रता का। जीवन को जी लेने का। फाड़ दीजिये वो सारे अपराधपत्र जो मैंने खुद को लिखे थे कल रात।
जानते है न , आपको निराश नही करूँगी।
ये आप ही जान सकते है, आप ही कर सकते है।
मैं इंतज़ार कर रही हूँ आपकी बात का।
आपकी
बेटी

Thursday 17 November 2016

नागरिकता का त्याग

स्वर्ग की जम्हाई के बीच नर्क के मील के पत्थर के पास, कपड़े सुखाती देवपुत्री। जब पलट पलट कर मनुष्य की राख से काले हुए आसमान को देखती है। अचानक से वो अपने प्रेमी को याद करते हुए गीले हाथों से राख को छु कर रोना चाहती हैं।
इस स्वप्न से उठकर स्वर्ग की नागरिकता का त्यागपत्र लिखना कितना आसान लगा उसे।

Sunday 13 November 2016

'प्रेम सखी'

तुम्हारी याद एक तकिए की दूरी पर पर हाथ बढ़ा कर बुलाती है। और मैं, मुस्कुराते हुए तुम्हारी हथेली में प्रेम रेखा को जीवन रेखा से मिलते हुए देखता हूँ। कितनी अजीब है, तुम्हारी हथेली। जीवन रेखा ही प्रेम रेखा बनी है। तभी तो कहता हूँ, कि तुम्हारा प्रेम दैहिक नही है। आत्मिक भी नही है, आध्यात्मिक है भाई! वो प्रेम जो मेरा ध्यान दृढ़ करता है ईश्वर के आँगन में। पर सुनो, तुम्हे देवदास की तरह माथे पर चोट नही दे जाऊंगा। हाथ बढ़ा कर नदी से खीँच लाऊंगा, हर उस रोज जब तुम पानी का बहाव तेज होगा।
तुम सखी हो आखिर।

'पल पल पलक'

तुम्हारा हर प्रेम, तुम्हारी बाट जोहती पलकों के भारी होने की वजह को मिटाते हुए जिंदगी जीने को मजबूर करता प्राकृतिक तन्त्र हैं। जीना चाहिए, हर आशा के किनारे। क्योंकि आशा-प्रेम और जीवन का हर एक क्षण कम से कम उतना तो सत्य है ही, जितना सत्य तुम्हारा होना हैं। पल पल जीना, ताकि पलकों पर जमी नमक की परत पिघल कर होंठो तक पहुँचे। और चखने भर से जीवन की मिठास का साक्षात् हो सके।