Sunday 13 November 2016

'प्रेम सखी'

तुम्हारी याद एक तकिए की दूरी पर पर हाथ बढ़ा कर बुलाती है। और मैं, मुस्कुराते हुए तुम्हारी हथेली में प्रेम रेखा को जीवन रेखा से मिलते हुए देखता हूँ। कितनी अजीब है, तुम्हारी हथेली। जीवन रेखा ही प्रेम रेखा बनी है। तभी तो कहता हूँ, कि तुम्हारा प्रेम दैहिक नही है। आत्मिक भी नही है, आध्यात्मिक है भाई! वो प्रेम जो मेरा ध्यान दृढ़ करता है ईश्वर के आँगन में। पर सुनो, तुम्हे देवदास की तरह माथे पर चोट नही दे जाऊंगा। हाथ बढ़ा कर नदी से खीँच लाऊंगा, हर उस रोज जब तुम पानी का बहाव तेज होगा।
तुम सखी हो आखिर।

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