Sunday 13 November 2016

'मुस्कुराहट की आहट'

एक शालीन सी मुस्कान, आते जाते सड़क पर सूरज की जमानत में बिखरती है। और हम गुजर जाते हैं। रोज होता है, मैकेनिक की केबिन वाला हो या पान की थड़ी वाला। कितनी हसीन है सुबह, विश्वात्मा हर रोज अपना पैगाम यूँ ही पहुँचाता है। शाम को हिसाब रखने बैठता हूँ तो सुबह की जमाओ से ही हिसाब कॉपी भर जाती हैं, दिन भर की तमाम व्यस्तताओं को ढक देना होता है इन मुस्कुराहटों के नीचे। कल एक महाशय मिले, बोले माटसाब गुटखे मत खाया करों, सूट नहीं करता है। मैंने कह दिया चचा छोड़ दिए हैं। हम फिर गुजर गए। 
इन गुजरने के बीच जिंदगी चहक जाती हैं, पता नही यह फैसला कब हुआ की सर झुका कर नही चलूँगा सड़क पर। लोग दिखते हैं, तो दुआ सलाम होती हैं। जिंदगी यूँ भी तमाम होती हैं।

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