Saturday 19 November 2016

पिता को पुत्री ने लिखा

पिता को पुत्री ने लिखा।
प्रिय पिताजी,
आप कितने प्रिय है, बता नही सकती। न ये बता पाती हूँ की आप क्या है मेरे लिए।
आप जब नौकरी पर चले जाते थे मैं स्कूल से आते वक्त, समारोहों में नाचते समय और पढाई से थक कर किताब बन्द करते हुए आपके संघर्ष को जीती थी। हमेशा सोचती थी, मेरे पिता का दुःख मेरे ऊपर से गुजरकर सुख में तब्दील हो जाना है एक दिन। समय और भविष्य से मेरी लड़ाई में आप मेरी ताकत भी थे और थकान का सहारा भी।
पिताजी, अब भी सोचती हूँ की कभी लड़कियो से शौक नही किए तो क्या! पिता जी जिंदगी जी कर खुद को उन्नत तो किया हैं।
पर मैं प्रेम नही कर पाई, आपने किया था कभी। कभी पहले। हम दोनों एक से निकले, समय की भागदौड़ में न प्रेम आपको खोज पाया न मुझे पकड़ पाया। मेरी कई सहेलियाँ मुझे चिढ़ाती थी बाईजी कह कर। पर मेरे पास अदृश्य जिम्मेदारी का बोझ और पिता की इज्जत का डर था। नही किया सो नही किया।
कल भी किसी से सस्नेह बात कर ली, तो अपराध बोध से भर गई। कही पिता बुरा न मान ले। रात आँखों में कटी और आँखे आँसुओ से कटती रही। पिताजी, बात कीजिए न मुझसे।कि मेरी उम्र के अपराध मेरे हिस्से में न लिखेगा ईश्वर। कहिए न कि मैंने जवानी में बुढ़ापा जिया है।
मुक्त कीजिये न मुझे इस डर से, कि मेरा जीवन मेंरा नही है। बताइये कि ये मेरा ही है।
मेरे सर पर हाथ रख कर मन्त्र पढ़ दीजिये आज,मेरी स्वतन्त्रता का। जीवन को जी लेने का। फाड़ दीजिये वो सारे अपराधपत्र जो मैंने खुद को लिखे थे कल रात।
जानते है न , आपको निराश नही करूँगी।
ये आप ही जान सकते है, आप ही कर सकते है।
मैं इंतज़ार कर रही हूँ आपकी बात का।
आपकी
बेटी

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