छत पर सोना कई तरह से मुफीद है, आसमान और सवाल दोनों अपनी अपनी शक्ति से विस्तारित होते दिखाई देते हैं। सपने और कल्पनाएँ भी। कई बार तो दो बार सो लेता हूँ, दो बजे तक और दो बजे बाद सुबह छह बजे तक। ये दो रातो का सफर बहुत हद तक खुद को दो हिस्सों में देखने का मौका देता हैं। एक, आम इंसान सा जो खुद के श्मशान में पौधे रोपने की कल्पना करता हैं। दूसरा, एक दृष्टा जो इंसानियत,देशी पहचान और समाज को दूर से बदलता और लुढ़कता देखता है। लुढ़कता, यानि की बिना प्रयास के गतिमान होता।
एक बात कहूँ, कहने से कुछ नही होता। करने से कुछ होता हैं। जीने से बहुत कुछ होता है, और करने और जीने के साथ खुद को बदलने से सब कुछ होता हैं। समाज, मत और स्वतन्त्रता के उपासकों को यह समझ आ जाता है। सो वे लुढ़कते हुए समय में अपना जंतर बो देते हैं। फिर कायनात आभारी सी आगे बढ़ जाती हैं।
हमे खुद में तात्विक बदलाव करने होते है, शल्य चिकित्सा से गहन, महीन और बारीक। तभी जीवन के प्रश्न छत पर सोते हुए हँसते हुए गुजर जायेंगे। वरना क्या है, हम और आप आज है। कल मर जायेंगे।
एक बात कहूँ, कहने से कुछ नही होता। करने से कुछ होता हैं। जीने से बहुत कुछ होता है, और करने और जीने के साथ खुद को बदलने से सब कुछ होता हैं। समाज, मत और स्वतन्त्रता के उपासकों को यह समझ आ जाता है। सो वे लुढ़कते हुए समय में अपना जंतर बो देते हैं। फिर कायनात आभारी सी आगे बढ़ जाती हैं।
हमे खुद में तात्विक बदलाव करने होते है, शल्य चिकित्सा से गहन, महीन और बारीक। तभी जीवन के प्रश्न छत पर सोते हुए हँसते हुए गुजर जायेंगे। वरना क्या है, हम और आप आज है। कल मर जायेंगे।
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