Sunday 13 November 2016

'मुक्ति पत्र'

एक सुबह ; देवताओं को एक मुक्तिपत्र भेजना था समय के बन्दी को। वे तय नहीं कर पा रहे थे, पत्रवाहक का नाम। मुश्किल यह थी कि समय का बन्दी चौदह वर्ष काट चुका था और पहले ही दिन से देवताओं को मालूम था कि वह बेकसूर था। 
अंततः बन्दी की पूर्व प्रेमिका को चुना गया मुक्तिपत्र की वाहिका के तौर पर। 
जब उसे बुलाया गया, वह स्वर्ग के दरवाजे पर रुक ही रुक गई। उसने बन्दी का नाम दीवार पर पढ़ा और मना कर दिया पत्र ले जाने के लिए। 
अन्ततः एक चरवाहे की लड़की को लाया गया, वह अनपढ़ तो थी ही, गणित में भी कमजोर थी। उससे तमाम तथ्य छुपाए गए, उसे चाँदी की पायल पहनाई गई और भेज दिया उस टापू पर जहाँ बन्दी बन्द था।
तहखाने में उतरते हुए पायल का एक एक घुँघरू टूट कर सीढ़ियों से लुढ़कता जा रहा था। बन्दी ने देखा इन घुंगरुओ में देवताओं को रोते और माफी मांगते। थाल में मुक्तिपत्र लिए जब चरवाहन पहुँची तो बन्दी ने उसके पिता का नाम पूछा। वह ठीक ठीक नहीं बता पाई। बन्दी ने कारावास की पिछली दीवार की तरफ ऊँगली करते हुए कहा, 'ये है ज्यूस जिसे वेदों में धौस कहा गया है। ये तुम्हारा पिता है चरवाहिन।
देवताओं के कपड़े जल गए होते, इंसानो के पर कट गए होते सीढ़ी उतरते हुए। तुमने घुँगरू उड़ेल दिए यहाँ।
बन्दी ने बरामदे में मुक्तिपत्र चिपकाने की प्रार्थना की, घुटनों पर बैठा और हथेली के आचमन में इकठ्ठे कर लिए चरवाहिन के सारे आँसू।
आगे क्या हुआ पता नहीं, सूरज ने छिपते वक्त बताया की अंतिम बार बन्दी के पैरो पर खड़े होते था उसने चरवाहिन को ।

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