Thursday 26 May 2016

सुदूर गाँव में गाँधी

अकबर रोड़ या राणा प्रताप रोड़

राजस्थान लोक सेवा आयोग के साक्षात्कारों में करीब पाँच साल तक एक प्रश्न अधिकतर उम्मीदवारों से पूछा गया , ' महाराणा प्रताप महान है या अकबर महान है ? '
सवाल एक मगर जवाब बहुत से , जो भी जवाब था । उसे सही साबित करने का दबाव हर प्रतियोगी पर था । इस प्रश्न को एक कोचिंग संस्थान के संचालक जो की स्वयं राज्य सरकार में अधिकारी भी है (पत्नी के नाम से संस्था चलाते है ) ने काफी हद तक सुलझा लिया । कहते थे - महान कोई भी हो , आयोग राणा प्रताप ही सुनना चाहता है ।
पड़ताल की तो मालूम चला संघ कोटे के सदस्य है , यह सवाल वे ही पूछते थे हर साल हर बार ।
मेरा साक्षात्कार होता तो मैंने भी अपना जवाब बना रखा था ।
मूल सवाल मगर यह है की अकबर रोड़ का नाम महाराणा प्रताप रोड़ करने के पीछे क्या मानसिकता काम कर रही है । वही , संघ की हीन ग्रन्थि । जो मानती है की हिन्दू धर्म ही सर्वश्रेष्ठ है , हिन्दू ही विजेता है , और हिन्दू ही बेहतर लड़ाका है । मैं पूछना तो यह भी चाहूँगा की जिस स्वाभिमानी व्यक्ति को अकबर और उसका साम्राज्यवादी तंत्र कभी दिल्ली के दरबार में न ले जा सका , उस व्यक्ति को सड़क के नाम पर दिल्ली क्यों ले जाना चाहते हो । साम्प्रदायिक वोट बैंक की अवचेतन प्रभाव रणनीति । और क्या ।
महानता का जवाब दिया जाए , तो क्या जवाब हो सकता है । राणा प्रताप आम आदमी के नायक है । और अकबर शासन के नायक । दोनों नितांत ही अलग , गैर बराबर और जरुरी नायकत्व है । राणा अस्मिता और स्वाभिमान के लिए जंगलों में धक्के खाते है , तो अकबर इस राष्ट्र के एकीकरण के लिए हिन्दू राजाओं के साथ एक थाली में रोटी खाते है ।
आधुनिक साम्प्रदायिक राजनीति हमसें दोनों ही महानताओं को खींच ले जाना चाहती है । कभी इंटरव्यू बोर्ड में अपनी हारी हुई मानसिकता का सवाल पूछकर तो कभी सड़क का नाम बदल कर ।
'नाश हो '

सनातन हिन्दू धर्म और हिंदुत्व

सनातनी हिन्दू धर्म का राजनीतिक संस्करण; हिंदुत्व असल में प्रतिक्रियावादी हिंसक संस्करण है। जिसका अंतिम लक्ष्य लोगों को मुर्ख बना कर कट्टरपंथी बनाना है । हिन्दू धर्म की जड़े यही हिंदुत्व खोद रहा है । गले में केसरिया मफलर डाल कर हिन्दू धर्म की रक्षा करने निकले लोग भूल जाते है की असल में वे एक कट्टरपंथी राजनीतिक दर्शन की रक्षार्थ जुटे है ।
हिन्दू होने के लिए सिंधु का पानी पीना पड़ता है, खून नहीं ।

क्रांति का बीज

दूर देश में एक कालबेलिया अपनी काली भेड़े चरा कर देर शाम को लौटता है , घर आकर वह पूरे दिन की थकान कागज पर उड़ेल देता है । उसकी पत्नी उसे कहती है - आँसु की अंतिम यात्रा लिखों । उसका छोटा बेटा कहता है - न्याय की दीवार दिखाओं शब्दों में । उसका पिता खाँसते हुए कहता है - आजादी का मर्म स्थल कहो ।
अचानक वह खांट से उठता है ,बुझा  कोयला उठाता है चूल्हे से और सफेद भेड़ चुनकर उसकी पीठ पर लिख देता है ;
' अज्ञात से उठा आंसू न्याय की दीवार पर लुढ़कता हुआ प्यास के होठ पर स्वतंत्रता का स्वाद बन रहा है । क्रांति ऐसे ही घटित होती है    .हे !पिता ! हे पुत्र ! हे प्रिया ! '

गर्भवती भैंस

गर्भवती चौपाये के लिए जमीन पर बैठना बहुत दर्दनाक प्रक्रिया होती है। गर्भवती भैंस सबसे पहले अपने शरीर को लम्बा खींचती है , रीढ़ की हड्डी के बीच शिशु के वजन को स्थिर करने की कोशिश में अपनी गर्दन आगे की ओर खींच लेती है । ततपश्चात अपने भार को लगभग रोकते हुए अगले दोनों घुटनों को एक एक करके सख्त जमीन पर गाढ़ती है , इस दौरान जमीन में धँसे कंकर पत्थर घुटनों में धँस जाते है कई बार । फिर पिछला एक पैर क्रोस रखते हुए पुट्ठे के सहारे गिरती है और दूसरा पैर इस दौरान जमीन पर टिका आखरी संतुलन का आधार बना होता है ।
वापस खड़े होते समय यही प्रक्रिया रिवर्स में अपनाई जाती है । पहले पिछले पैरों को खड़ा करना और फिर आगे के घायल घुटनों के बल ऊखडू उठने का प्रक्रम । सृजन से जुड़ी एक एक एक छोटी घटना दर्द और श्रम से जुड़ी है , प्रकृति कठोर माँ है ।

मिर्ची का भाव

खबर है की महाराष्ट्र में एक टन प्याज बेचकर किसान को एक रुपया मुनाफा मिला बस ।
बात उन दिनों की है जब हमनें मिर्च लगाई थी खेत में । पहला तोड़ निकला आठ बोरी , दिन भर मिर्च तोड़ कर शाम को निजी मण्डी में पहुँचे तो भाव मिला बाइस रुपये किलो के हिसाब से । हम कोई पाँच सात लोग थे अलग अलग खेतों वाले । भाव सुनकर बहुत खुश हुए , और मिर्च तुलवा दी । एक एक व्यक्ति को पाँच से सात हजार रुपये मिले उस रात । पैसा गिन कर जेब में रखा और साथ वाले किसान लड़कों ने बीयर पी उस रात । घर लौटे और दुगुनी मेहनत और उम्मीद से अगले तोड़ में लग गए । दस बारह दिन बाद पिछली आठ बोरी की तुलना में इस बार तोड़ बैठा बाइस बोरी का । साथ वालों का भी ठीक ही बैठा । इस बार हमारी मिर्च की बोरियाँ एक की जगह दो ट्रेक्टर में लद कर गई । हाईवे के गाँवों में सड़क पर ही प्राइवेट मण्डियां लगती थी , पहली मण्डी पहुँचे तो भाव लग रहा था इस बार सिर्फ बारह रुपये किलो । किसी ने बताया अगली मण्डी में बीस चल रहा है , पहुँचे तो पता लगा सुबह बीस था । अभी माँग में कमी है सो आठ रुपये का भाव है । अजमेर मण्डी की मांग आनी बाकी थी सो अगली मण्डी वाले ने फोन पर बताया की आ जाओं दस तो लग ही जायेगा । हम तीसरी मण्डी पहुंचे । पिछली दोनों मण्डियों में एक बार फिर फोन लगाया रास्ते में से तो पता लगा की भाव उतर कर पाँच रुपये किलो रह गया है । तीसरी मण्डी पहुँचे डरते डरते । अजमेर मण्डी से कोई मांग न आई थी । हमें मिर्च तुलवानी पड़ी डेढ रुपये किलो में । कुल बारह सौ रुपये लेकर घर लौटे , उस रात साथ वाले किसानों ने खेत से निकलते वक्त बीयर पीने की योजना बनाई थी । मुझे याद है , लौटते लौटते हमे एक बज गया था , रास्ते भर एक आदमी न बोला , सब चुप चाप ट्रोली में बैठे पता नहीं क्या सोच रहे थे ।
संयोग से अगले दिन कस्बे में ठेले वाले से मिर्ची ली पाव भर आठ रुपये की , यानि बत्तीस रुपये किलो भाव में । बीच के साढ़े तीस रुपये कहाँ गए होंगे मैं नहीं जानता !

जॉन अब्राहम ; अब'रहम करो जॉन

फरहान उर्फ़ जॉन अब्राहम ।
इस आदमी को पहली बार JGB  के एलबम में देखा था । गहरी आँखे , डिम्पल धँसा चेहरा ,लम्बा कद और तीखे कँधे । लगता था की यूनानी देवता की सन्तान है अखिलीज और हरक्यूलस की तरह ।
शारीरिक बनावट अपनी जगह है मगर जब आवारापन देखी तब निर्णय हुआ की जॉन बहुत उम्दा ऐक्टर भी है । जब करीना कपूर ने बिपाशा बसु को कहा की उसके बॉय फ्रेंड का चेहरा पत्थर की तरह का है , तभी से करीना दिल से उतर गई । कोई जा कर कहे उसे की फॉर्मल शर्ट में जॉन से बेहतर कोई फबता है क्या ? कौन मॉडल है जो सूट के साथ चप्पल पहन कर भी रेम्प से लेकर बॉलीवुड पार्टियो में पहुँच जाता है - और उन्हें रौंद भी देता है ।
मद्रास कैफे बना कर (प्रोड्यूसर) जॉन ने न केवल एक महत्वपूर्ण घटना पर बहुत हद तक सच्ची फ़िल्म बनाने का साहस किया है । कई फिल्मो में जॉन का होना ही जरुरी लगता है । धूम में जॉन हायबुसा का विकल्प थे और कस्बो में लड़को ने उसी किरदार से बाल रखकर बाइक्स दौड़ाई थी । धूम सीरीज में आमिर और जॉन के नेगेटिव किरदार की तुलना दिल पर हाथ रख कर करेंगे तो दूसरा हाथ जॉन के पक्ष में उठेगा । कोशिश कर लीजिए ।
ईसाई पिता और फारसी माता की संतान जॉन यूरोप और फारस के मध्य किसी जगह का मध्यकालीन लड़ाका सा लगता है जो भटक कर खेबर दर्रे से होता हुआ मुल्तान की दरगाहों में विश्राम करके वहाँ से नशीली आँखे उधार ले कर भारत आ गया ।
लव यू जॉन ,अब'रहम ( भी करो यार )

खुदाई खिदमतगार

भारत में एक चेतना लोक चेतना का हिस्सा किस तरह बनती है । किस तरह भूगोल हमारे मानसिक भूगोल को प्रभावित करता है । खैबर दर्रे के नजदीक वर्तमान पाकिस्तान क्षेत्र में खान अब्दुल गफ्फार खान का जन्म हुआ । आश्चर्य की इस क्षेत्र को सदियों से बेहद अस्थिर माना जाता है और इस क्षेत्र के लोग भयंकर किस्म के लड़ाके रहे है , खुद खान का डील डौल मध्यकालीन कबायली युद्धा सा था मगर बादशाह खान ने बच्चा खान हो कर अहिंसा और सत्याग्रह को दिल से लगाया । आजीवन गाँधी के साथ पैदल चले और जब विभाजन के बाद उन्ही के शब्दों में उन्हें ' भेडियो के सामने फैंक दिया गया' तो भी पाक जाकर वे निरंतर सत्ता से लड़े । जीवन जेलों में बीता । मृत्यु के बाद अफगानिस्तान में दफनाया गया तो , जिस खैबर दर्रे से आक्रमणकारी आते थे उस दर्रे से शांति दूत के पक्ष में रैली की तरह लोग सम्वेदनायें प्रकट करने अफगान इलाके में गए । इस दौरान रूस ने सीज फायर घोषित किया और बच्चा खान बच्चों की तरह न किसी मुल्क की शास्ति रहे न सीमा में बंधे रहे । आगे देखिये , खुदा गवाह का अमिताभ , जंजीर का प्राण शेर खान हमारी चेतना की जंजीर की अहम् कड़िया है । ये चरित्र मुम्बई के डॉन हाजी मस्तान से प्रेरित है । और हाजी मस्तान की प्रेरणा खान अब्दुल गफ्फार खान थे । खां साहब ने ही खुदाई खिदमतगार के झंडे तले 'पख्तून जिर्गा ऐ हिन्द ' नामक संगठन की स्थापना करके हाजी मस्तान को लोगो के हक़ में बात उठाने को प्रेरित किया था । हाजी पहले पहल अफगानों का नेतृत्व करता रहा बाद में उसका मुम्बई दरबार ( सनी देवल के देवा की अदालत की तरह  -जिद्दी फ़िल्म ) सभी के लिए खुल गया । हो सकता है यह गांधी के सर्वोदय से आंशिक प्रभावित हो ।
जब खैबर खुद खैबर न रहे , बादशाह खान बच्चा खान हो जाने लगे , गांधी का अनुयायी  और साथी अंतिम समय तक जेल जाने से न घबराये , एक डॉन जनता दरबार लगाने लग जाए , और फिल्मो का शेर खान दोस्ती की कसम लगे । भारत की सामूहिक चेतना खैबर के दर्रे से निकल कर फिल्मो की श्रृंखला के बीच कही बह रही है । इसे गाँधी हवा देते है और खान साहब जी लेते है ।

Friday 20 May 2016

ममता , माया और राष्ट्रवाद

स्कूल कॉलेज की कक्षाओं में एक नियम सा है, कि मास्टर जी जब बहुत सख्त हों और अनुशासन का डंडा चलायें तो कक्षा के बालकों में ग्रुप बनने शुरू हो जाते हैं। एक ग्रुप मानता है कि गुरूजी सही हैं, दूसरा मानता है कि बिलकुल ग़लत, तीसरा ग्रुप सोचता है कि गुरूजी को ख़ुद में ही थोड़ा सुधार करना चाहिए। आदि आदि । गुरूजी के अतिअनुशासन, या एक ही डंडे से सभी को हांकने के प्रयत्न का असर ये हुआ कि कक्षा में क्षेत्रीय विभाजन हो गया ।

भारत सरकार अगर यह सोचती है कि एक ही तरह से सभी को सोचना चाहिए या सभी लोगो को वैसे ही सोचना और करना है जैसे वो चाहती है, तो क्या होगा बताइये ! ग्रुप्स बनेंगे । बिहार में लालू प्रसाद यादव अचानक से राजनीतिक नायक कैसे बन उभरे है। उन्होंने उस असंतुष्ट ग्रुप का नेतृत्व किया जो सरकार की उस एकरूपता को अपनाना नहीं चाहता। विविधता भारत की पहचान है ! फिर आप इसे नकारेंगे तो क्षेत्रीयता मज़बूत होगी । लगातार मज़बूत होगी । सरकार इसी तरह अपना आर्थिक, सामाजिक, मनोवैज्ञानिक और टैक्स राष्ट्रवाद थोपती रही तो बंगाल में ममता बनर्जी भी जीतेंगी और उत्तर-प्रदेश में मायावती भी !

रोहित वेमुला के पीछे

मैं इन्फेक्टेड महसूस कर रहा हूँ। बारूद के मौसम से इन्फेक्टेड। हुआ यह है की रोहित वेमुला की आत्महत्या अगर ' इंस्टिट्यूशनलाइज्ड मर्डर ' है तो महाराष्ट्र के 5000 किसानों की एक साल के भीतर हुई आत्महत्याएँ संस्थानिक हत्या क्यों नहीं है । कन्हैया एक प्रोपगेंडा का शिकार अभियुक्त है तो रोज रोज क्राइम और करप्शन से लोहा लेता आम भारतीय किस शब्दावली का शिकार है। राजनीति का सबसे बुरा दौर हर वक़्त  रहता है। मगर आज का दौर इसलिए भी नाज़ुक बन पड़ा है क्योंकि राष्ट्रीय विमर्श के विषय और हमारी सामूहिक चिंता की सलवटे राष्ट्रीय मनोरंजन से जा मिले है। सड़क से संसद तक असली सवालों की बजाए कम असली सवालों पर भिड़ रहे है हम । बदलते हुए मौसम में जब लोग सर्दी से सिकुड़े जा रहे है और राजनीतिक उबाल से गर्म होते जा रहे है, किसान आत्महत्या, नक्सली कारवाहियो, बेकारी, क्राइम - करप्शन के मूलभूत मुद्दे पटल से गायब है। दोष किसे देँ, पक्ष और प्रतिपक्ष दोनों उलझे है। और हम किसी एक खेमे में इन्फेक्टेड होकर पड़े हुए राष्ट्रीय मनोरंजन का मजा लूट रहे है ।

लोकतन्त्र में लोभतन्त्र

कस्बों और महानगरों के सामान्य इलाकों में मकान किराया और प्लॉटों की कीमत कमोबेश एक सी हो गई है । पिछले बीस वर्षों में स्कूलों और कोचिंग क्लासों की फीस इतनी अधिक बढ़ गई है कि माँ-बाप अपनी ज़रूरतों को घटाकर ही पढ़ा पा रहे है अपने बच्चों को । बच्चों को गर्मियों की छुट्टियों में बाहर घुमाने ले जाना अब माँ बाप का भी सपना है और बच्चों का भी । दाल और पेट्रोल की बढ़ती हुई कीमतों पर जिरह और संघर्ष करता हुआ आदमी जब सरकार की तरफ आशा लगाता है तो क्या मिलता है ? सत्ता का संघर्ष और क्या । केजरीवाल , राहुल गाँधी, नरेंद्र मोदी की लड़ाई में आपकी तरफ देखने की फुरसत किसी को नहीं है भाई । एक बात यह भी है कि बदलाव का ठेका राजनेताओं को देकर हम उनके फैन बन गए हैं ।

लोकतंत्र की दीवार का कमजोर होना यही से शुरू होने लगता है कि 'लोक' सोचना समझना बन्द करके 'तंत्र' की शाबाशी और कमियाँ निकालने में मस्त हो जाए ।जिस भौगोलिक और साँस्कृतिक यूनिट को हम देश कहते है वह लोगो से बनता है , लोगों की प्रसन्नता से बनता है । नेताओं और सत्ता के भाषण से नहीं ।

पायलेट का जहाज और गहलोत की गाड़ी

कल रात समाचार आया कि सचिन पायलेट को राष्ट्रीय नेतृत्व ने तलब करके अपनी मुहिम बन्द करने का आदेश दिया है । सचिन और गुट पिछले कई दिनों से अशोक गहलोत के विरुद्ध खुली खेमेबाजी कर रहे थे और बकायदा अभियानरत भी थे ।

राजनीति की सूक्ष्मता इस बात से तय होती है कि आप कितने पानी के भीतर है और कितने पानी के ऊपर है । यह आइसबर्ग थ्योरी है । जिसका पालन आवश्यक रूप से किया ही जाना चाहिए । खुले तौर पर विरोध और समर्थन करने वाला पोलिटिकली इनकरेक्ट और राजनीतिक बचपना करता है । पायलेट ने भी यही किया । और भी बेजा गलतियाँ की । पहली तो यह कि वे अब तक अपनी टीम नहीं बना पाए है , उनके समूह में उनके पिता के तत्कालीन लोग है । दूसरे, सचिन अतिरिक्त रूप से अपनी कार्यकारिणी में सजातीय लोगो को बेजा जगह देते है और एक किचन कैबिनेट टाइप समूह से घिरे रहते है ।

संघर्ष और आंदोलन राजनीति का दूसरा बड़ा सच है । जो नेता आंदोलन में सक्षम और पारंगत है उसका जीवन उतना ही लम्बा है ,नेतृत्व के रूप में । इस दृष्टि से सचिन के सजातीय,समकालीन और सपार्टी विधायक धीरज अधिक पुष्ट और धीर है । वे निरंतर आन्दोलनरत रहते है और अपनी बात कहते समय अपनी जाति का नहीं अपने लोगो का प्रतिनिधित्व करते है । अंतर भी है - सचिन आनुवंशिक राजनीती से आते है और धीरज ग्रासरूट से । फिलहाल सचिन की अपरिपक्व राजनीति  ने उन्हें यह स्वीकार करने पर मजबूर कर दिया है की गहलोत उनके पिता तुल्य है । उम्र में भी और राजनीतिक कॉरिडोर में भी ।

हलधर नाग : तारा जमीन पर

पद्म पुरस्कार लेते वक्त हलधर नाग नंगे पैर थे । बहुत सम्भव है कि इस तस्वीर को देखकर आप का जी कुछ देर के लिए वर्तमान काल खण्ड से उचट जाये । फिर आपका खुद के जीवन से भी मन उचट जाए और तत्पश्चात आपका अहम् अपनी तुष्टि के लिए हलधर नाग की शिष्टता में बाबा आम्टे या अपने दादा को देखने लगे । इस आशा में कि आप इस शख्स के व्यक्तित्व से रिलीज़ हो सकें ।

सच कुछ और है । कमर से टाइट जींस और सरकार की आलोचना ने हमें जकड़ लिया है । इस मुल्क की सच्चाई गॉवों की पगडंडियों से होते हुए वहाँ के सामाजिक तानेबाने में रची है । हलधर की कविताओं में औरत की आजादी का आह्वान उसके आंसुओं और समस्याओं में है । जिसे वो कस्बे कस्बे जा कर गाते है । इनकी कविताओं में जातिभेद का दुःख आरक्षण को निशाने पर लेकर चुप नहीं होता । वह दुःख रोजमर्रा का संघर्ष है जो निरन्तर घटित होता है , जिसे हलधर सिर्फ बयान करते है । सामाजिक वितन्डो को वे यथास्थिति में कहते है - जिसे अपना लगे वो हँस दे या रो दे । इसीलिए वे जनकवि है उड़ीसा की कोसली भाषा के । लोगो की बात लोगो की जबान में कह देने से लोगो को लड़ने का हौंसला मिलता है । एक जनांदोलन की तैयारी इसी तरह होती है ।

हलधर का पहनावा कहता है की वे बेहद सामान्य श्रेणी से उठकर आये है । लेकिन पेट दिखाकर आपकी सम्वेदना नहीं जगाऊंगा । बस यह कि, वे तीसरी कक्षा तक पढ़े है मगर अपनी जन आवाज से कई स्कॉलरों को अपनी कविताओं पर रिसर्च करने के लिए आकर्षित करते है ।

हमारी परम्परा राष्ट्रपति भवन पर नंगे पैर पहुंची है । सामाजिक मुद्दों की बाते देसी आवाज में लोगो तक गई है । हमे देखना होगा की जिस तरह का जीवन हम जी रहे है वह बहुत हद तक सच नहीं है । कन्धे पर हल धर कर आज जो लोग सुदूर कोनों में रहते है । हलधर उनका ही जीवन कहते है ।

सच कहते हो, हमें कौन जानता है

जिंदगी भर एक ही बनिया से सामान लिया । एक ही जगह से पंचर निकलवाया । बैंक के गार्ड को सलाम किया और बस कंडक्टर से अदब से टिकट माँगा । बच्चों के मास्टर खुद के गुरूजी लगे और मोहल्ले के बच्चों को खेलते हुए लताड़ा नहीं कभी । चार दोस्तों से लड़ते हुए , उनके लिए लड़ते हुए चौबीस साल गुज़ार दिए । पनवाड़ी से बीड़ी भी ली तो उससे आँख चुराते हुए ।

सच कहते हो, कौन जानता है हमे ।

जब किसान मरता है

किसान आत्महत्या करता है तो एक पूरा तंत्र मरता है । किसान की पत्नी कर्ज चुकाने के लिए या तो पशुओं को बेच कर या जमीन बेच कर उधार चुकाने का इंतजाम करती है । क्योंकि किसान के मरने से कर्जा माफ नहीं होता , उल्टे रकम चुकाने का दबाव ज्यादा बढ़ जाता है । किसान को रोने आने वाले लोग , रिश्तेदार और महाजन तीये की बैठक के बाद से ही अपने पैसे के डूब जाने के डर से अपने अपने तरीके से दबाव बना जाते है ।

किसान का पुत्र उम्र में कम हो या बालिग हो , उसका भविष्य नए रूप में निर्धारित होता है । पढाई करना अब उसके बस में नहीं होता । अब उसे घर का सामाजिक और आर्थिक नेतृत्व करना होता है । अपने बाप के हिस्से का दर्द अब उसे झेलना है , निरंतर ।

किसान की बेटी को लोगो को यह विश्वास दिलवाना है अब की उसके पिता दिवालिया होने के डर से नहीं मरे है । उसका भाई बैंक, महाजन और रिश्तेदारों का एक एक रूपया लौटाएगा ।

किसान के बैल, गाय , भैंस , बकरियाँ या तो बिकने के लिए इन्तज़ार करते है या कटने के लिए । आर्थिक तंगी से जूझता हुआ परिवार मृत्यु उपरान्त किए जाने वाले सामाजिक क्रियाकर्मो के लिए इन्हें ही बेच कर पूँजी जुटाएगा ।

घर का बड़ा सदस्य अब नहीं है , घरेलू जायदाद के मसले , खेत के सीमांकन की ग्रामीण समस्या, खेत मे पानी लाने के मौखिक समझौते सब अबसे नए सिरे से परिभाषित होने है । यह बोझ या तो किसान की पत्नी को ढोना है या बड़े लड़के को ।

सच यह है की आत्महत्या के वक्त किसान जब  फंदा फांद रहा होता है , समानांतर रूप से एक अदृश्य फंदा उसके बच्चों , परिवार और पशुओं के लिए भी कसा जा रहा होता है ।

किसान अपनी मृत्यु  चुन लेता है , सिस्टम उसके परिवार को जिन्दा मारता है फिर रोज , बरसों तक । मृत्यु भी उन्हें चुनने से मना कर देती है ।

लातूर का नमकीन पानी

बंगाल में कम्पनी सरकार का राज हुआ, बीस साल भी न बीते थे बक्सर की लड़ाई को और दुर्भिक्ष पड़ा, खुद अंग्रेज अफसरों ने ब्रिटेन पत्र लिखे कि इस मुल्क को हमनें इस हद तक बर्बाद कर दिया है कि बंगाल के अकाल में कुछ जगह पर लोगों ने मानव माँस खा कर जीवन बचाया है|

राज बदला , तो लगा खुद कि लोग खुद के लोगो से सम्वेदना रखेंगे , साथ गम बाटेंगे । स्वराज आएगा । स्वराज आने के लिए रवाना तो हुआ , मगर बीच रास्ते में ही रुक गया । लातूर तक नही पहुँच पाया । लातूर की ही बात नहीं है , राजस्थान में तो हर दूसरे बरस अकाल पड़ता है । कितनी हास्यास्पद बात है , नेशनल ग्रिड बन रहा है , ताकि बिजली का न्यायपूर्ण बँटवारा हो सके । बिजली न आएगी तो पसीना निकलेगा । मगर पानी नहीं होगा तो अर्थी उठेगी, जनाजा निकेलगा । विकास की किताब में बिजली के पन्ने के बाद पानी का पन्ना क्यों नहीं है । शहर के चेप्टर के बाद गाँव का चेप्टर क्यों नहीं है ।

कभी नहीं रखा गया , आज भी कोई नहीं रख रहा ।सत्ता सेल्फ और सेल्फ़ी में मग्न है |
प्रशासन उनके ट्विटर हैंडल हैंडल कर रहा है । कुछ आँखों का पानी सूख गया है , कुछ का रुकने का नाम नहीं ले रहा है ।

मीठा और आँखों का नमकीन पानी दोनों एक दूसरें छोर पर खड़े होकर एक दूसरें का इंतजार कर रहे है ।

जाति कभी नही जाती

जाति का मनोविज्ञान और व्यक्तित्व पर प्रभाव बहुत सूक्ष्म और मारक होता है । मेरा विश्वास कीजिए आप राजपूत हैं, और अगर हरिजन होते तो आपका यही व्यक्तित्व नितांत भिन्न होता । आप मोची हैं, और अगर ब्राह्मण होते तो यही आपका व्यक्तित्व भिन्न दिशा में यात्रा करता पाया जाता । एक और बात यह कि क्या कोई जातिवाद से मुक्त हो सकता है ?  जाति के प्रभाव से मुक्त होना अत्यंत विरल घटना है । जातिगत प्रभाव पुरुष को फिर भी थोड़ी ढील दे देते हैं , स्त्री का तो जीवन ही बदल देते है । एक ही कक्षा में पढ़े चार लड़के जो ब्राह्मण, राजपूत, बनिया, चमार हैं ।  पचास साल बाद उनका जीवन तौलिए । और ऐसी ही चार लड़कियों का जीवन तौलिए । स्त्री ज्यादा संकट में दिखेगी । स्वास्थ्य, जीवन शैली, मानसिक शांति जैसे विभिन्न पहलुओं के सापेक्ष ।
'जाति कभी नही जाती'

बाबा रामदेव की गत

कम से कम बाबा रामदेव के साथ बड़ा धोखा हुआ है । भारत स्वाभिमान के बैनर तले बाबा रामदेव ने निरंतर जन जागरण किया , अपने योग शिविरों को क्रूसेड जनसभाओं में बदला, कई टीवी कार्यक्रम किए , और रामलीला मैदान में भी अखिल भारतीय स्तर के आंदोलन की रूप रेखा बनाने का प्रयत्न किया । एक वह भी दौर था जब रामदेव लोकप्रियता के मामले में किसी भी बड़े नेता को टक्कर देते थे । बाबा ने कैसे साम्राज्य खड़ा किया , कैसे योग शिविरों को सभ्रांत लोगो के लिए सुरक्षित किया यह अलग बात है । मगर काले धन को लेकर जो जनचेतना बनी उसमे बाबा रामदेव का योगदान मौलिक है ।
उस वक्त भाजपा ने बाबा को उठते हुए  चरम पर पहुँचने दिया और इससे पहले की रामदेव भारत स्वाभिमान पार्टी बनाते , बाबा को लपक लिया । बाबा ने भी अपने मुद्दों के लिए समर्थन देना ठीक समझा । मगर राजनीति के मैदान में बाबा को पहली बार शिकस्त तब मिली जब उन्होंने 100 सांसद सीट मांगी और मिली मुट्ठीभर । सीधी बात है , बाबा को मजबूत बना कर भाजपा खुद पार्टी के भीतर ही भाजपा-2 बनाने का रिस्क क्यों लेती ।
मगर आज बाबा क्या है । टीवी चैनल काले धन पर सवाल करते है तो बाबा का चेहरा सफेद पड़ जाता है । बाबा पतंजलि ब्रांड के ब्राण्ड एम्बेसेडर बने नही है , बनाये गए है । ताकि उन्हें ठोस व्यापारी की छवि में कैद करके क्रूसेडर की छवि से मुक्त किया जा सके । पब्लिक परसेप्शन को इसी तरह बदला जाता है, यह समूह का मनोविज्ञान है ।
अब जब रामदेव मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव के साथ दिख रहे है तो यह बाबा का सहज चुनाव नही है । यह उस भग्न हृदय व्यक्ति की छटपटाहट है जो अब आंदोलनकारी रहा नहीं, व्यापारी बना दिया गया है , और खुद को वह संत सह राष्ट्रभक्त साबित करना चाहता है । यह उस मध्यकालीन राजनीतिक व्यक्ति सी हालत है , जिसे सत्ता प्राप्ति के बाद हज पर जाने का आदेश मिला है ।